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जैन संघ के छः अंग डा० विद्याधर जोहरा पुरकर, जावरा
प्राचीन समय में जैन सघ के चार भाग किये जाते थे--मुनि, प्रायिका, श्रावक व श्राविका। किन्तु जो व्यक्ति श्रावक और मुनि की मीमारेखा पर होते हैं उनका इस विभाजन में ठीक तरह से वर्णन नहीं हो पाता । उदाहणार्थ-वर्तमान समय में जो क्षुल्लक अथवा ऐलक पद के व्यक्ति है वे आचार-ग्रन्थो की दृष्टि से श्रावक हैं किन्तु व्यवहारतः वे साधुवर्ग मे ममाविष्ट समझे जाते है। मध्ययुग मे जब दिगम्बर मुनि नहीं के बराबर थे तब यह समस्या विशिष्ट रूप में सामने पाती रही होगी। इस विषय पर करीब चार शताब्दी पूर्व की एक रचना अभी हमारे अवलोकन मे आई, जिमे पाठको के लाभार्थ उद्धृत किया जाता है। इस रचना का शीर्षक 'सधाष्टक' है । इसमे छप्पय छद के दस पद्य है। इसके रचयिता ब्रह्म ज्ञानसागर है जो काष्ठामघ-नन्दीतटगच्छ के भ. श्रीभूषण के शिष्य थे। विक्रम की सत्रह्वी सदी मे उनका समय निश्चित है। ज्ञानसागर ने जैन संघ का विभाजन इस प्रकार किया है-१. श्रावक, २. श्राविका, ३. पडित, ४. व्रती, ५. प्रायिका, ६. भट्टारक । भट्टारक के आदर्श का कवि का वर्णन पटनीय है। यदि सभी भट्टारक इस आदर्श को प्राप्त करने का यत्न करते तो मायद भट्टारक-विरोधी तेरापथ-सप्रदाय का उद्भव ही न हुआ होता । अस्तु, कवि की मूल रचना इम प्रकार है:
वरज तीन मकार पंचउबर परित्यागे। व्यसन सात गत दूर दयाभाव अनुरागे ॥ देव शास्त्र गृह भाव निशिभोजन परिहारी।
जल प्रासुक पोवंत सप्त तत्व मन धारी।। दशविध धर्मामृत पियो मिथ्या पंचमनथें त्यजे । ब्रह्म ज्ञानसागर बदति सो श्रावक जिनमत भजे ॥२॥
श्रावकनी जग कही पतिसहित व्रत पाले। माराधे जिनदेव पंच मिथ्यामति टाले। देत दान नित च्यार जिनवर पूज रचावं। करे पर उपकार भावना हृदयमा भाव।। धरे सम्यक्त्व पाले दया गरु वंदे पातक त्यजे । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति सो श्रावकनी पद भजे ॥३॥ सामायिक मन शुद्ध मुख नवकारह अंपे। थावर जगम जीव तास घात मन कंपे। धर्मध्यान नित करत देव शास्त्र गुरु वंदे । प्रतिमा पालत पाठ प्रास्रव सकल निकवे ॥ व्यवहार धर्म पाले सदा शुद्ध भाव मनमा घरे। श्रावकनी ते जाणिये ब्रह्म ज्ञान इम उच्चरे ॥४॥ पडित कहिये सोहि जोहि व्याकरण बखाणे । पंडित कहिये सोहि जोहि पागम गुण जाणे ॥ पंडित कहिये सोहि हस्त क्रिया जिस प्रावे। पडित कहिये सोहि जोहि संयम व्रत पावे ॥ महा भिषक शांतिक बडुं होम मत्र जप उच्चरे। ब्रह्म ज्ञान सागर वदति सोपडित पूजा करे ॥४॥ ब्रह्मचार सोहि जाण जोहि जिनवाणी रत्ता। प्रतिमा पाठ घरंत व्रत सामायिक जुत्ता। इंद्रिय करे निरोष समावंत गणधारी। मदन कषाय निरोष व्यसन सात परिहारी॥ करे तीर्थ समता घरे परम साघु पासे रहे । ब्रह्मचार ते जाणिये इस विध ज्ञानसागर कहे ।।६।।
संघाष्टक
सेवे जिनवर देव धर्म दशलक्षण धारे। गृहसेवे नित साधु व्यसन कषाय निवारे॥ दान च्यार नित देत बारे व्रत नितपाले।
रत्नत्रय मन धरत पंच मिथ्यामति टाले ॥ सामायिक नवकार गृह क्रिया सकल पाले सदा । धावक ते जाणो निपुण ब्रह्मज्ञान बोले मुदा ॥१॥