Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 268
________________ वागभट्ट के मंगलाचरण का रचयिता २४६ निदान आदि करके निराकरण किया जाना सम्भव है। चार्वाक नास्तिक इस मंगलाचरण का रचयिता नहीं शरीर में या जीव में होने वाले रोगों के प्रकार अनेक है। हो सकता है, क्योंकि वह पुद्गल से अलग जीव का तथा उनके उपाय भी अनेक हैं। एक रोगके लिए भनेक औष. अस्तित्व नहीं मानता, उसके मत मे जीव के रागादिक का धियां हो सकती हैं तथा अनेक रोगो के लिए एक प्रौषधि भी होना सम्भव नहीं है। उपयोगी हो सकती है। इस प्रकार रोगी, रोग, उनके कारण प्रात् मत के सिवाय किमी भी मन्तव्य के अनुसार और शमन के उपाय आहे त् मतानुमार अनेकान्तमय है। उपर्युक्त मंगलाचरण का रचा जाना संभव नहीं है । जो जीव के रागादिक रोग होते हैं, वे निष्कारण नही क्षणिकवादी है, वह मगलाचरण के रचने के विचार के हो सकते हैं । जीव, शरीर और कर्म से बंधा हुआ है। समय ही चल बसेगा । प्रत. वह तो उसे रच ही नही उम बध के हेतु मोहादिक है । यदि नवीन अपराध, मोह, सकता है। तथा जो सर्वथा नित्य है, बढ़ मगलाचरण हिमा आदि रूप से न किया जावे तथा कर्मोदयादि से रचने के पहले जैसे नित्य मंगलाचरण रचने के विचार होने वाले पुराने रोगों का अन्त करने के लिये इच्छा- से रहित था, वैसे ही रहने से मंगलाचरण रचने के नवीन निरोध रूप तप करके उनको प्रांशिक रूप से समाप्त कार्य को नहीं करा सकता है। किया जावे, तो फिर पूर्णरूप से मुक्ति भी असम्भव नही जो द्रव्य दृष्टि से वस्तु को ऊर्ध्व सामान्य या अन्वय है। जो निर्दोष सर्वज्ञ हैं उनके शरीर में मोहादि का की अपेक्षा से कथञ्चित् नित्य तथा पर्याय अपेक्षा से प्रभाव होने से कोई रोग और उपसर्ग नही होता है। कथञ्चित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त मानता है उस पाहतु यदि जीव को काया से सर्वथा अबद्ध माना जावे तो मत की अपेक्षा से उस मगलाचरण का रचा जाना सम्भव काय में उत्पन्न होने वाले रोगो का असर ससारी जीव मे है। "प्रसद् का उत्पाद् नहीं होता है तथा सत् निर्मूल क्यो हो ? अन्य के शरीर के समान निजी शरीर के रोग नही होता है।" इस कथन के अनुसार समस्त वस्तुएँ मे भी उसे वेदना नहीं होनी चाहिये ? किन्तु पीड़ा का अनादि निधन है। जो वस्तु है उमी में कुछ उत्पाद व्यय अनुभव मोही जीव को होता है। वह राग जीव का परि- प्रादि होते रहते है। जो कुछ भी नही है उसमे न कोई णाम है । वह रागादिक रोग निष्कारण नहीं होना है। उत्पाद है न व्ययादिक है। जो वस्तु है, वही परिणामी जीव विवेकरहित होकर अपराध कर कर्म बन्ध कर उसके नित्य है, वही वस्तु हो सकती है। इस प्रकार वस्तु उभफल पाता है । इसीलिये प्राचार्य धनञ्जय ने कहा है कि- यान्वय से और अविनाभाव से सहित है। "नरक यात्य मेधश ।" __ यदि रोग का कारण सर्वथा नित्य है, तो रोग का उक्त कथनों पर से यह फलित होता है कि-जीव उपचार व्यर्थ होता है। यदि रोग क्षणिक है, वह स्वत. अजीव के साथ अपराध करने से बँधा हुमा शरीर रूपी नष्ट होता है, तो भी उसका उपाय व्यर्थ है। जो रोग कारागार में पड़ा हुमा है। वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी निष्कारण प्रति क्षण उत्पन्न हो तथा नष्ट हो, उमके मत भगवान् अपूर्व वैद्य है-जैसा कि वैद्यक ग्रथों मे स्वयंभू मे आयुर्वेद शास्त्र कार्यकारी नही हो सकता है। किन्तु प्रजापति या मादिदेवरूप धनवन्तरी को रागादि रोगों को जो रोग के प्राधार रोग के कारण, रोग तथा रोग के दूर करने वाला वैद्य प्रतिपादित किया है। जीवका स्वरूप उपचार को, पाहत् मत में कहे हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और जानना देखना है या उपयोग है, तथा मजीव अचेतन रूप भाव से सहित परिणामी नित्य, मानता है, उसके मत में है, अपराध पाश्रव है, तथा उससे कर्म बन्ध होता है, जब ही प्रायुर्वेद शास्त्र तथा मगलाचरण-प्रणयन प्रादि की जीव अपराध को नहीं करने रूप (सम्यक्त्व सहित) संवर सफलता सम्भव है। को करता है, तथा रागादि रोगों के कारण कर्म को अंश यदि औषधि रूप से पाये जाने वाले द्रव्य सर्वथा रूप से निर्जरारूप करते हुए पूर्णरूप से जब उसे खिरा नित्य हैं, तो वे कोई असर नही कर सकते तथा क्षणिक देता है. मुक्त होता है। [शेष पृष्ट २५२ पर]

Loading...

Page Navigation
1 ... 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310