Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 269
________________ रइधू कृत 'सावयचरिउ' 'समत्तकउमुइ' ही है प्रो० राजाराम जैन, पारा [रइष अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'समत्तकउमह" का निर्माण किया था। उनकी रचना 'सावयचरिउ' का ही दूसरा नाम 'समत्तकउमई' था। पं० परमानंद और प्रो. राजाराम दोनों की ऐसी मान्यता है । श्री अगरचंद नाहटा ने 'भूल की पुनरावृत्ति' कहकर उसका खण्डन किया है। किन्तु प्रस्तुत निबंध में प्रो. राजाराम ने नाहटा जी के कथन को नितान्त भ्रामक प्रमाणित कर दिया है। अच्छा होता यदि नाहटा जी अपने 'खण्डन' को प्रखण्ड न मानते। -सम्पादक अनेकान्त के वर्ष १७ किरण १ (अप्रैल १६६४) में सुरसेन-देवमेन (मेहेसर० शह) आदि लेखकों, सिद्धान्ताचार्य श्री बाबू अगरचन्द्र जी नाहटा ने एक लेख कजकित्ति-कमलकीत्ति (णेमि० अन्त्यप्रशस्ति) लिखकर महाकवि रइधू कृत "मावयचरिउ" का "समत्तक- आदि माथुर-गच्छीय पुष्करगणशाग्या के भट्टारको, एव उमुई" नाम अनुपयुक्त माना है। उन्होंने अपने मत का रामचरित-पउमचरिउ एव बलहचरिउ, समर्थन करते हुए भिक्ष स्मृति ग्रंथ (कलकत्ता १९६१) मे मेहेमरचरिउ-आदिपुराण, प्रकाशित "अपभ्र श-भाषा के मन्धिकालीन महाकवि रइधू" मम्मइजिणचरिउ---वीरचरिउ एव बढमाणचरिउ, नामक मेरे निबन्ध एव श्री ५० परमानन्द जी शास्त्री मिग्विालचरिउ-सिद्धचक्कमाहप्प एव सिद्धचक्कद्वारा सम्पादित 'प्रशस्ति संग्रह द्वि० भाग की प्रस्तावना विहि, (पृ० १०२) मे उल्लिखित र इधूकृत "समत्तकउमुइ" नाम- वित्तमार-चरितमार, तथा कोभी" "ठीक नहीं" बतलाया है। किन्तु जिसे श्री नाहटा मिणाहचरिउ-अस्ट्रिण मिचरिउ एव हरिवशपुराण जी ने "भूल की पुनरावत्ति" कहा है, मेरे दृष्टिकोण मे आदि स्वचरित रचनाओं के नाम-नामान्तरो के प्रयोग मत्य का समर्थन वस्तुतः उसी से होता है। उपलब्ध होते है। यही नहीं, उसने स्वयं अपने नाम के ___ "सावयचरिउ" के प्राद्योपान्त अध्ययन से यह स्पष्ट भी नाम-नामान्तर प्रस्तुत किये है। जैसे उसने 'रइधृ' ज्ञात हो जाता है कि 'सावयचरिउ' एवं 'ममत्तकउमुइ' इस नाम का तो प्रयोग किया ही किन्तु कही-कही 'सिहसेन' एक ही रचना के दो नाम है। रइधू-साहित्य का विद्यार्थी (सम्मइ० ११५१०-११; मेहेसर० ११३८-६) का भी होने के कारण मुझे रइधू का प्रायः समस्त उपलब्ध प्रयोग कर लिया तो सन्धियों के अन्त्य पत्तों में रइ, साहित्य देखने का अवसर मिला है तथा उसकी कई (सम्मइ० १११६।११, २।१६।१७, ३१३८।१७,४।२१।१५, विशेषताओं में से एक यह विशेषता भी दृष्टिगोचर हुई ॥३८॥१२:६।१७।१३, सावय० ३।२६) रइधर (सावय० है कि लेखक ने नायकों, भट्टारकों एवं रचनामों के कई श१३) जैसे नामान्तरों के उल्लेख भी किये हैं। ठीक कई पर्यायवाची नाम अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किये हैं। इसी प्रकार 'सावय चरिउ' के भी कवि ने कई नामो के जैसे उल्लेख किये है । जैसे "कौमुदी कथा प्रबन्ध" (जीवन्धर० रविपहु-अर्ककीत्ति (पासणाह० ३।११।१), ११३); 'कौमुदी प्रबन्ध' (णेमि० ११२) 'कौमुदी कथा' हयसेणु-अश्वसेन (पासणाह० ३३११४, ३।२।१४), (जीवन्धर० ११४ तथा उसकी अत्यन्त प्रशस्ति) 'सम्मत्त सत्तुदमन-अरिदमन (सिरिबाल० ३।२), कउमुइ' (सावय० अन्त्य पुष्पिका) एवं 'सावय चरिउ' । हरिरह-मृगरथ (सिरिवाल० २११) आदि नायकों, उपर्युक्त उदाहरणो से यह भी स्पष्ट अवगत होता है कि

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