Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ २५८ अनेकान्त उस श्रु तज्ञान के दो१ उपयोग हैं-स्याद्वाद और नय। प्रमाण सप्तभंगीस्याद्वाद सकलादेश है और नयविकलादेश । ये सातो आगम और युक्ति से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि ही भग जब सकलादेशी होते है, तब प्रमाण और जब वस्तु मे अनन्त धर्म है। अत. किसी भी एक वस्तु के विकलादेशी होते हैं, तब नय कहे जाते है । वस्तु के समस्त पूर्णरूप से कथन करने के लिए तत् तद् अनन्त धर्म-बोधक धर्मों को ग्रहण करने वाला सकलादेश और किसी एक अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। परन्तु न यह धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला२ तथा शेष सम्भव है, और न व्यवहार्य ही। अनन्त धर्मो के लिए धर्मों के प्रति उदामीन अर्थात् तटस्थ रहने वाला विकला पथक-पृथक अनन्त शब्दो के प्रयोग मे अनन्तकाल बीत देश कहा जाता है। प्राचार्य सिद्धसेन के शब्दों में-स्याद्- सकता है, और तब तक एक पदाथ का भी समग्रबोध न वाद सम्पथविनिश्चायी है३ । अतः वह अनेकान्तात्मक हो सकेगा। प्रस्तु, कुछ भी हो, हमे किसी एक शब्द से पूर्ण अर्थ को ग्रहण करता है । जैसे 'जीव.' कहने से जीव ही सम्पूर्ण अर्थ के बोध का मार्ग अपनाना पड़ता है। वह के ज्ञान प्रादि असाधारण धर्म, सत्त्व आदि साधारण एक शब्द ध्वनि-मुखेन भले ही बाहर मे एक धर्म का ही धर्म और अमूर्तत्व आदि साधारणा-साधारण आदि सभी कथन करता-सा लगता है, परन्तु अभेद प्राधान्य वृत्ति गुणो का ग्रहण होता है। प्रत. यह प्रमाण-वाक्य है अथवा अभेदोपचार से वह अन्य धर्मों का भी प्रतिपादन स्याद्वाद वचन है। नय वाक्य वस्तु के किसी एक धर्म । कर देता है । उक्त अभेद प्राधान्य वत्ति या अभेदोपचार का मख्य रूप से कथन करता है जैसे "जो जीव" कहने मेक शब्ट के द्वारा एक धर्म का कशन जोते भाभी से जीव के अनन्त गुणो में से केवल ज्ञानगुण का ही प्रखण्डरूप से अन्य समस्त धर्मो का भी युगपत् कथन हा बोध होता है, शेषधर्म गौणरूप से उदासीनता के कक्ष में जाता है। अत. इसको 'प्रमाण-सप्त' भगी कहते है। पड़े रहते है। सकलादेशी वाक्य के समान विकलादेशी वाक्य मे भी 'स्यात्' पद का प्रयोग अनेक प्राचार्यों ने प्रश्न है, कि यह अभेद वृत्ति अथवा अभेदोपचार किया है। क्योकि वह शेष धर्मों के अस्तित्व की गौणरूप क्या चीज है ? जबकि वस्तु के अनन्त धर्म परस्पर भिन्न से मूक सूचना करता है। इस आधार से सप्तभगी के है, उन सबकी स्वरूप सत्ता पृथक् है, तब उनमे अभेद दो भेद किये जाते है-प्रमाण-सप्तभगी और नय-सप्त- कसे माना जा सकता है ? सिद्धान्त प्रतिपादन के लिए भंगी। केवल कथन मात्र अपेक्षित ही नहीं होता, उसके लिए कोई ठोस प्राधार चाहिए। समाधान है कि वस्तु तत्त्व के १. उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ, स्याद्वाद नय-सज्ञितो । प्रतिपादन की दो शैलियों है-अभेद और भेद । अभेदस्याद्वाद. सकलादेशो नयो विकल सकथा ।। -लघीयस्त्रय श्लोक ६२ शैली भिन्नता मे भी अभिन्नता का पथ पकड़ती है और २. पनेक-धर्मात्मक वस्तुविषयक-बोधजनकत्व सकला भेद शैली अभिन्नता में भिन्नता का पथ प्रशस्त करती है। देशत्वम् । जास्तु, अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार विवक्षित एक धर्मात्मक-वस्तु-विषयक-बोधजनकत्वं विकला- वस्तु के अनन्त धर्मों को काल, प्रात्म, रूप, अर्थ, सम्बन्ध देशत्वम् । -सप्तभग तरगिणी पृ० १६ उपकार, गुणिदेश, ससर्ग और शब्द की अपेक्षा से एक साथ ३. नयनामेकनिष्ठाना, प्रवृत्ते श्रुतवमनि; अखण्ड एक वस्तु के रूप में उपस्थित करता है । इस सम्पू थिंविनिश्चायी, स्याद्वाद श्रुत मुच्यने । प्रकार एक और अखण्ड वस्तु के समस्त धर्मो का एक साथ -न्यायावतार सूत्र श्लो० ३० समूहात्मक परिजान हो जाता है । -क्रमशः

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310