Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 293
________________ २७४ अनेकान्त में बोल-चाल के कुछ शब्दों का पा जाना स्वाभाविक है। प्रयात, शंखनारी, सिंहावलोकन, काव्य, प्लवंगम, कलहंस, धनपाल की भाषा में जैसी कसावट और संस्कृत के शब्दों गाथा और संकीर्ण स्कन्धक प्रादि । के प्रति झुकाव है उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी भाषा बोलचाल की न होकर साहित्य की है। कुछ उदा भविष्यदत्त में समाज और सरकृति हरणों से यह स्पष्ट हो जाता है। जैसे कि पालोच्य काव्य में राजपूतकालीन समाज और किउ प्रभुत्थाणु णराहिवेण, संस्कृति की स्पष्ट झलक दृष्टिगोचर होती है। भविष्यदत्त केवल सकल कलाएं, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष तन्त्र-मन्त्रादिक अहिणउ पाहुडु अल्लविउ तेण । ही नहीं सीखता है वरन् वणिकपुत्र होकर भी विविध (कृत अभ्युत्थान नराधिपेन, __अभिनव प्राभृत प्राहृत्य ? तेन) प्रायुधों का विभिन्न प्रकार से संचालन, सग्राम में विभिन्न रयरणाहरण विहूसिय कठि, चातुरियों से अपना बचाव, मल्लयुद्ध तथा हाथी-घोडे वेलासिरिव उयहिं उबक्रठि । प्रादि सवारी की भी शिक्षा प्राप्त करता है। उस युग मे (रत्नाभरण विभूषित कण्ठ, स्त्रियाँ विभिन्न कलायो मे तथा विशेष कर संगीत और वेलाश्रीरिव उद्गत उपकण्ठ) वीणावादन में निपुण होती थी। सरूपा इन कलाओं से डा० तगारे ने पश्चिमी अपभ्रश की जिन विशेषताओं युक्त थी। सामाजिक वातावरण और लोक-रूढियो से भरित यह काव्य लोकयुगीन विशेषतामो को छाप से का निर्देश किया है वे पालोच्य कथाकाव्य मे भलीभाति प्रकित है, जिसमें भविष्यदत्त को रण के लिए सजाना, मिलती है२६ । इस कथाकाव्य की भाषा आदर्श भले ही वणिक्पुत्र भविष्यदत्त का रण में कौशल प्रकट करना, न हो पर परिनिष्ठित अपभ्रश अवश्य है, जिसके लक्षण धनवइ का युद्ध के लिए तैयार होना, व्यापार जोड़ना हमें प्राचार्य हेमचन्द के व्याकरण मे मिलते है। अतएव धनपाल की भाषा साहित्यिक है, जिस पर बोलचाल का पादि ऐसी बाते है जो राजपूतकाल की विशेषताएँ रही पानी चढ़ा हुमा है। है। इमी प्रकार लोक-प्रचलित रूढ़ियो का भी विशेष विवरण इस काव्य मे मिलता है। प्रलंकार-योजना सादृश्यमूलक अलंकार ही विशेष रूप से मिलते हैं। सक्षप मे कथाकाव्य का स्वरूप तथा अपभ्रंश काव्य कुछ मुख्य अलंकार इस प्रकार है--विनोक्ति, दृष्टान्त, में वणित लोक-जीवन और सस्कृति को समझने के लिए कायलिंग विशेषोक्ति, विरोधामस, लोकोक्ति, रूपक, भविष्यदत्त कथा का अध्ययन प्रावश्यक ही नही अनिवार्य भी है । भाषा की दृष्टि से तो इसका विशेष महत्व है। रिक्त और भी कई अलंकार मिलते हैं। उत्प्रेक्षा के कई लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरो से जहाँ भाषा प्रभाव भेद प्रयुक्त हैं। उनको देखकर यही प्रतीत होता कि धन पूर्ण है वही साहित्यिक प्रयोग से भी समन्वित है। साहिपाल मानो उत्प्रेक्षा के ही कवि हैं। त्यिक और बोलचाल की भाषा का सुन्दर मेल इस काव्य की विशेषता है। देशी शब्दों की प्रचुरता इस काव्य में छन्दयोजना विशेष रूप से मिलती है। इसके वर्णनो को पढ़ते-पढ़ते इस कथाकाव्य मे वणिक और मात्रिक दोनों प्रकार लोक जीवन की विविध रगीन चित्रावली आँखों के सामने के छन्द मिलते हैं। अधिकतर छन्द मात्रिक हैं। निम्न झूमने लगती है। उदाहरण के लिए वसन्त-वर्णन प्रस्तुत लिखित छन्द विशेष रूप से प्रयुक्त है-पज्झट्टिका या पद्धड़ी पडिल्ला, पत्ता, दुवई, मरहट्ठा चामर, भुजग ____घर-घर में कुतूहल के साथ चाचर खेली जाने लगी। २६. डा० गजानन वासुदेव तगारे; हिस्टारिकल प्रामर घर-घर मे उत्सव मनाये जाने लगे। घर-घर मे तोरण प्राव अपभ्र श, पूना, १९४८, पृ० २६० । सजने लगे। घर-घर में लोग परस्पर प्रेम प्रदर्शित करने

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