Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 292
________________ अपश का एक प्रमुखकपाकाव्य अपने-अपने कामों को छोड़कर प्रिय की कुशल प्रकुशल महीने में यदि मेरा पुत्र माकर नहीं मिला तो मैं अपने की बात करते हुए नदी-तट पर पहुंचे। धनवइ ने पांखों प्राणों को त्याग दूंगी२७ । यहाँ पर कवि ने माकाशवाणी में प्राँसू भरकर गदगद वाणी से बेटे की कुशल-क्षेम पूछी२५। या किसी असाधारण घटना का समावेश न कर अस्वाभावियोग वर्णन विकता से कथानक को बचा लिया है। इस कथाकाव्य विप्रलम्भ शृङ्गार के पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण में और भी जो वियोग-वर्णन के स्थल हैं उनमें भी रीतिमें से पूर्वराग को छोड़कर तीनों रूप मिलते हैं । कमलश्री परम्परा से प्रस्त मानबीय भावनामों का प्रदर्शन न होकर धनवह प्रियतम के मान धारण कर लेने पर घर मे ही जीवन को वास्तविक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। प्रत्यन्त दुखी होकर वियोग में छटपटाती है। धनवा के शृङ्गार के अतिरिक्त अन्य रसों में रौद्र, हास्य, प्रणय से हीन उसका मन अत्यन्त संतप्त रहने लगता है। वात्सल्य और भयानक की प्रसंगतः मधुर अभिव्यजना हुई उसके अग विरहाग्नि सहन करने में असमर्थ हो जाते हैं। है। विविध रसों के भाव, अनुभाव और हावो की भी उसकी आँखें जाते हुए पति की पोर ही लगी रहती हैं। योजना इस काव्य में मिलती है । यद्यपि शृङ्गार के दोनो इतने पर भी उसे प्रिय के वचन, मदन, प्रासन और शयन पक्षों का चित्रण काव्य में किया गया है परन्तु जायसी कभी नही मिल पाते२६ । या सूर की भांति वियोग-वर्णन की अतिशयता, रूप-विधान भविष्यदत्त के मनागद्वीप में छूट जाने पर भविष्यानु- और गम्भीरता नहीं मिलती। इसका कारण यही प्रतीत रूपा बहुत दुग्वी होती है । वह तरह-तरह से अपने मन को होता है कि कवि का लक्ष्य काव्य को शृङ्गार प्रधान न समझाती है। वह विचार करती है कि मैं गजपुर में हूँ बना कर शान्तरस को अंगी मानकर अभिव्यक्त करना और पतिदेव यहाँ से सैकड़ों योजन दूर द्वीपान्तर मे हैं। था। लगभग सभी कथाकाव्य शान्तरस प्रधान है । किस प्रकार से मिलना हो? जिस द्वीप की भूमि में कोई भाषा मनुष्य संचार नहीं करता वहाँ कैसे पहुँचू ? मुझे जितना यद्यपि धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रश है पर दुःख भोगना था उतना भोग लिया। बिना प्राशा के मैं उसमे लोकभाषा का पूरा पुट है। इसलिए जहाँ एक और कब तक प्राण धारण करूं? इतने में ही वह किसी से साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग हैं वही लोक-जीवन सुनती है कि कमलश्री ने यह निश्चय किया है कि एक की सामान्य बातों का विवरण घरेल वातावरण मे एव २५. धाइउ सयलु लोउ विहडप्फडु जनबोली में वरिणत है। सजातीय लोगों की जेवनार में केणवि कहवि लयउ सिरकप्पडु । कवि ने घंवर, लड्डू, खाजा, कसार, मांडा, भात, कचरिया केणवि कहुवि छुड्डु करिकंकणु पापड़ प्रादि न जाने कितनी वस्तुग्रो का वर्णन किया है। केगवि कहु वि दिण्णु मालिंगणु । डा० एच० जेकोबी के अनुसार धनपाल की भाषा केणवि कहुवि अंगु पडिविवउ बोली है जो उत्तर भारत की है२८ । धनपाल की भापा केणवि कोवि लेवि सिरु चुंविउ । पूर्ण साहित्यिक है। केवल लोक-बोली का पुट या उसके गय वइयहि कम्मइ मेल्लियइं शब्द-रूपों की प्रचुरता होने से हम उसे युग की बोली णयणई हरिसुसुजलोल्लियइ । जाने वाली भाषा नहीं मान सकते । क्योंकि प्रत्येक रचना पियकुसलाकुसल करंतियई चित्तइं सदेहविडंवियई ।। २८. डा. एन. जेकोबी : फ्राम इण्ट्रोडक्सन टु द ८,१ | भ० क०, भविसयत्त कहा, अनु० प्रो० एस० एन० धोसाल, धणवइ मंसुलोल्लियणयणयणउं प्रकाशित लेख, "जनरल प्राव द ओरियन्टल पुच्छइ पुणुवि सग्गिरवयणउं । इन्स्टिट्यूट, बडौदा," द्वितीय खण्ड, प्रक संख्या ३, २६. वही, २, ६-७। २७. वही, ८, २० । मार्च १९५३ ।

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