Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 278
________________ यज्ञ और अहिंसक परम्पराएं प्राचार्य श्री तुलसी [प्रस्तुत निबन्ध में श्रमण और वैदिक परम्परामों की दृष्टि से 'यज्ञ' का तुलनात्मक विश्लेषण है। श्रमण सस्थाएँ नितान्त हिसक थीं। उसके प्राचीन ग्रन्थों से प्रमाणित है कि पहले बलि-यज्ञ नहीं होते थे, वे मौषधि-यज्ञ के रूप में प्रचलित थे। पहले वेदानुयायो भी यज्ञों में अलि नहीं देते थे। जैन तीर्थकर मनिसुव्रतनाथ के तीर्थकाल में यह कार्य प्रारम्भ हुमा । यही राम-लक्ष्मण का भी युग था। इनका विरोध केवल जैन और बौद्ध संस्थानों ने ही नहीं, अपितु सांख्य, शेव, कृष्ण और महर्षि नारद से सम्बधित तत्वों ने भी किया। इस भाँति लेख में प्राचार्य श्री को गहन विद्वत्ता के दर्शन होते हैं। उन्होंने गवेषणा-पूर्ण तथ्यों को प्रायासहीन रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। काश, शोध में संलग्न विद्वान यह ढंग अपना सके। -सम्पादक] यज्ञ भारतीय साहित्य का बड़ा विश्रुत शब्द है। यज्ञ का विरोध-- इसका सामान्य अर्थ था देवपूजा । वैदिक विचार धारा थमण सस्थाएँ अहिसा-निष्ट थी, इसलिए वे प्रारम्भ के योग से यह विशेष अर्थ म रूढ़ हो गया-वैदिक कम- से यज्ञ का विरोध कर रही थी। उसका प्रज्वलित रूप काण्ड का वाचक बन गया। एक समय भारतीय जीवन हमे जैन, बौद्ध साहित्य और महाभारत में मिलता है। मे यज्ञ संस्था की धूम थी, आज वह निष्प्राण मी है। महाभारत यद्यपि श्रमरणों का विचार-ग्रन्थ नहीं है, पर वेद-काल मे उसे बहुत महत्व मिला और उपनिषद्काल । उसका एक बहुत बडा भाग उनकी विचार-धारा का मे उसका महत्व कम होने लगा। प्रतिनिधित्व करता है । सास्य और शंव भी यज्ञ-सस्था के ऋग्वेदकालीन मान्यता थी-"जो यज्ञ रूपी नौका _"जो यज्ञ स्पी नौका उतने ही विरोधी रहे है, जितने जैन और बौद्ध । प्रजापर सवार न हो सके, वे अधर्मी है, ऋणी है और नीच। पति दक्ष के यज्ञ मे शिव का आह्वान नही किया गया। अवस्था में दबे हुए है।" महर्षि दधीचि ने अपने योग बल से यह जान लिया कि ये सब देवता एक मत हो गए है, इसलिए उन्होने शिव इसके विपरीत मुण्डकोपनिषद् मे कहा गया है---"यज्ञ को निमत्रित नही किया है। उन्होंने प्रजापति दक्ष मे विनाशी और दुर्बल साधन है । जो मूढ इनको श्रेय मानते कहा-."मैं जानता हूँ, आप सब लोगों ने मिल-जुलकर, है, वे बार-बार जरा और मृत्यु को प्राप्त होते रहते शिव को निमत्रित न करने का निश्चय किया है परन्तु मैं शंकर से बढकर किसी को देव नही मानता । प्रजापति १. ऋग्वेद संहिता १०॥४४॥६ दक्ष का यह विशाल यज्ञ नष्ट हो जाएगा४ । प्राविर न ये शेकूर्यजिया नावमारूहमीर्मव ते न्यवियन्त वही हुमा । पार्वती के अनुरोध पर शिव ने वीरभद्र की केपय । सष्टि की। उसने प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वस कर मुन्डकोपनिषद् ११२७ डाला। प्लावा ह्यते प्रदृढा यज्ञरूपा, अप्टादशोक्तमवर येषु कर्म । ३. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४११६ एतच्छे यो येऽभिनन्दन्ति मूढा, ४. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४१२१ जरामृत्यु ते पुनरेवापि यन्ति । ५. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४१२६-५०

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