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अनेकान्त
__ यह कथा बताती है कि शिव उस संस्कृति के थे, देवताओं ने उनसे कहा-अज मे यज्ञ करना चाहिए और जिसे यज मान्य नहीं था। इसीलिए देवतानो ने उन्हे इस प्रकरण मे आज का अर्थ बकरा ही है। ब्रह्मर्पियो ने निमंत्रित नहीं किया था।
कहा-यज्ञ मे बीजो द्वारा यजन करना चाहिए, यह वैदिक साख्य कारिका मे स्पष्ट है कि सारूय लोग यज्ञ में श्रति है । बीज का नाम ही अज है, बकरे का वध करना विश्वास नहीं करते थे। वे इसे हेय मानते थे।
उचित नही। यह मत्युग चल रहा है, इसमें पशु का बध महर्षि कपिल और स्यूमरश्मि के संवाद में भी यही कैसे किया जा सकता है?? देवता और ऋषि मवाद कर प्राप्त होता है। स्यूमरश्मि हिंसा का समर्थन करता है रहे थे, इतने मे गजा वसु उम मार्ग से निकला । वह और महपि कपिल पहिसा की प्राचीन परम्परा को पुष्ट मत्य-वादी था । सत्य के प्रभाव से उपरिचर था-आकाश करते है। उन्होंने त्वष्टा के लिए नियुक्त गाय को देखकर मे चलता था। उसे देख ब्रह्मर्पियो ने देवतानो से कहानिश्वास लेते हुए कहा-हा वेद ! तुम्हारे नाम पर लोग वसु हमारा सन्देह दूर कर देगा। वे सब उसके पास गये । ऐसा-ऐसा अनाचार करते है।
प्रश्न उपस्थित किया। राजा ने दोनो का मत जान अपना स्यूमररिम ने कहा-पाप वेदो की प्रमाणिकता में निर्णय देवताग्रो के पक्ष में दिया । वह जानबूझ कर असत्य सन्देह करते है। महर्षि कपिल बोले-मैं वेदो की निन्दा बोला, अत. ब्रह्मपियो ने उसे शाप दिया और वह आकाश नहीं करता हूँ। किन्तु वैदिक मत रो भिन्न दूसरा मत से नीचे गिर पाताल में चला गया। है-कमों का प्रारम्भ न किया जाए-उसका प्रतिपादन जैन-माहित्य मे भी 'प्रजैयंप्टव्यम्'-इम विवाद का कर रहा हूँ। यज्ञ आदि कार्यों में पालम्बन (पगु-वध) न उल्लेख मिलता है । एक बार साधु-परिपद मे 'अज' शब्द करने पर दोष नहीं होता और मालम्बन करने पर महान को लेकर विवाद उठ खडा हुमा। उस समय ऋषि नारद दोप होता है। मै अहिमा से परे कुछ भी नही देखता। ने कहा-जिसमे अकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गई,
राक्षस नाग प्रादि यज्ञ विरोधी थे। पुराणों के अन- वैमा तीन वर्ष पुगना जो 'अज' कहलाता है। पर्वत ने इसका सार असुर माहंत धर्म के अनुयायी हो गये थे।गवण ने प्रतिवाद किया । वह बोला-अज का अर्थ बकरा है। भी राजा मरत को हिमात्मक यज से विमुख किया था। उम परिषद् में पर्व का अर्थ मान्य नहीं हुआ । वह यज्ञ के प्रकार
क्रुद्ध होकर वहा से चला गया। उसने महाकाल अमुर से यज्ञ के मुख्य तीन प्रकार मिलते है
मिल जाल रचा। स्थान-स्थान पर यह प्रचार शुरू १. प्रौपचा-यज्ञ, जिसमें फल-फूल आदि का व्यवहार किया-"पशुप्रो की सृष्टि यज्ञ के लिए की गई है। होता।
उनका वध करने से पाप नही होता किन्तु स्वर्ग के द्वार २. प्राणी-यज्ञ, जिसमे पशु और मनुष्य की बलि दी जाती। १ महाभारत, शान्तिपर्व श्लोक ३३७।३-५
३ प्रात्म-यज्ञ, जो प्राध्यात्म व्रत से सम्पन्न होता। २. महाभारत, शान्तिपर्व, श्लोक ३३७१६-१७ औषधी-यज
३ उत्तरपुराण, पर्व ६७, श्लोक ३२६.३३२ 'अजयंष्टव्यम्'-इस वैदिक श्रुतिका अर्थ-परिवर्तन
गच्छत्यव तयो. काले कदाचित्साधुसंसदि । किया गया, तब पशु-बलि प्रचलित हुई। इससे पूर्व
अजैहोतव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थप्ररूपणं ॥ प्रौपधि-यज्ञ किए जाते थे। महाभारत का एक प्रसग है
विवादोऽभून्महास्तत्र विगताकुरशक्तिकम् । एक बार ब्रह्म-ऋषि यज्ञ के लिए एकत्रित हुए। उस समय
यवबीज त्रिवर्षस्थमजमित्यभिधीयते ।।
तद्विकारेण सप्ताचिमुखे देवाचंन बिद. । १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६८, श्लोक ७-१७ वदन्ति यज्ञमित्यास्यदनुपद्धति नारद । २. विष्णुपुराण ३११७,१८
पर्वतोप्यज शब्देन पशुभेदः प्रकीर्तितः । ३. त्रिषष्ठिशलाका, पुरुष चरित्र, पर्व ७, सर्ग २, पत्र ७ यज्ञेग्नौ तद्विकारेण होत्र मित्यवदद्विधी.॥