________________
रह कृत 'सावयचरित' 'समतकउमुई हो है
२११
कवि रइधू ने 'सावय चरिउ' मे ही 'सावय चरिउ' का
ता कइणा पडिउत्तरूपउत्तु । नामोल्लेख किया है किन्तु अपनी अन्य रचनामों में
तुह कहिउ करमि हउ सुह णिरुत्तु ।। पूर्ववर्ती स्वरचित रचनायो के उल्लेखो के प्रसंग मे सर्वत्र
परणियमिणसोयाणरपहाणु । 'कौमुदी कथा' प्रादि के नाम से ही उसका स्मरण किया
जो सच्छभानु उब्वहइ जाणु ॥ है, 'सावय चरिउ' के नाम से नही। फिर 'सावय चरिउ'
जाचहिणउ कोवि महत्तु होइ । की चतुर्थ सन्धि की पुष्पिका मे 'सम्मत्त कहतर' एव
ता किम विच्छरइ ससच्छु लोइ । उसीको अन्त्य पुष्पिका मे सम्मत्तक उमुइ' का स्पष्ट
सावय० ॥३॥५-८ नामोल्लेख मिलता ही है, तब पता नही उसे 'सावयचरिउ'
प्रतीत होता है कि टेक्कणि साह की प्राथिक स्थिति के कहलाने का ही आग्रह श्री नाहटा जी क्यों करते हैं ?
बहुत अच्छी न थी तथा कवि बिना प्राश्रय प्राप्त किए ___ जहाँ तक विषयवस्तु का प्रश्न है 'सावयचरिउ' एव
रचना कर सकने में असमर्थ था। अतः उक्त साहु ने 'समत्तक उमुइ' में कोई अन्तर नही । सस्कृत की सम्यक्त्व
तुरन्त ही गोपाचल के श्री कुशराज का परिचय कवि को कौमुदी ही इसका मूलाधार है अथवा यदि चाहे तो यह
दिया तथा समय पाकर एक दिन वह कुशराज को लेकर भी कह सकते है कि सस्कृत की सम्यक्त्व कौमुदी का
स्वय कवि के पास पहुंचे तथा कुशराज की पूर्व चार गट कळ थोड से हेर-फेर के साथ अपभ्रंश-सस्करण हा है। पीतियो का परिचय देते हए । शराज के विषय म इसके उदितोदय एव सुयोधन राजा, सुबुद्धि मत्री, रूपखुर , एव सुवर्णखुर चौर, अहंदास सेठ तथा उसकी मिश्री
एयाह मभि. कुल-भवण-दीउ । आदि पाठ सेटानियाँ दोनो ही ग्रथो मे समान है।
कुसराज महासइणिरुविणीउ ।। कथानक भी वही है । दोनो ही ग्रन्थो में 'कौमुदी-महोत्सव'
तुहु पुरु सठिउ विण्णवइ एहु । कथानक-विस्तार का मूल कारण है । इस आधार पर यह
सत्थत्थज्जाणु किण्णउ मुणेहु ॥ स्पष्ट है कि 'सावय चरिउ' एवं 'समन कउमुइ' एक ही
इहु णिव्वाहइ सकइत्त भारु । रचना के दो नाम है।
इय मुणिवि करहि किण चरिउ चारु । श्री नाहम जी ने 'सावयचरिउ' का ग्रन्थ प्रेरक सेउ
इहु कवियण मणभत्तउ पहाणु । माहू के पुत्र कुसराज को माना है। मैं इससे भी सहमत
तुम्हह कीरेसइ अहिऊ माणु ॥ नही । 'सावयचरिउ' के प्रणयन की मूल प्रेरणा वस्तुत.
सावय० १।४।१३-१६ टेक्कणि साहु ने ही की । यथाप्रायमचरि उपुराणवियाणे । टेक्कणिसाहु गुणणपहाणे ।
टक्कणि साह मे कुशराज का परिचय प्राप्त कर रइधू
ग्रन्थ प्रणयन की स्वीकृति देते हुए कहते हैं - पडितच्छतण विणन उ । करमउले प्पिणु वियसियवत्तउ॥ धत्ता
इहु सच्चु कइत्तहु भ: वहेइ। भो भो कइयणवर दुक्किय रयहर
णिम्मलु जस पसरु विइह लहेइ ।। पइकदत भर वहिउ मिरि ।
माहम्मिय वच्छल गुण पवितु । गिसुणहि रिणम्मलमणरजिय
कि कि ण करमि एयहु पउत्तु ।।
सावय०१४.१८-१६ बुह्यण सव्व सुहायर सच्चगिरि ॥ सावय० १।२।१७-२०
इसके बाद रइधृ एव कुश गज का परस्पर में कुछ ..........."तह सावइ चरिउ भणेह इच्छ ।। वार्तालाप होता है और रइधू अपना कार्यारम्भ कर देते सावय० ११३।४
है। इन प्रसगो से यह बिल्कुल स्पष्ट ही है कि कुशराज कवि टेक्कणिसाहु की प्रार्थना सुनकर अपनी कुछ ग्रंथप्रेरक नहीं बल्कि प्राश्रयदाता है । ग्रंथप्रेरक तो वस्तुत. असमर्थता दिग्व लाता है। वह कहता है
टेक्कणि साहु ही है, क्योकि टेक्कणि साहु यदि कवि से