________________
वागभट्ट के मंगलाचरण का रचयिता
श्री क्षुल्लक सिद्धसागर [सेठ कन्हैयालाल पोद्दार के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'संस्कृत साहित्य का इतिहास (प्रथम भाग पृ० २५४) में तीन वाग्भटों का उल्लेख मिलता है। पहले वाग्भट जैन थे, और उन्होने 'वाग्भटालंकार' का निर्माण किया था। उस पर पांच टीकाएँ उपलब्ध हैं । टीकाकार सिंह गणि ने उन्हें कवीन्द्र, महाकवि और राजमंत्री कहा है। दूसरे वाग्भट प्रजन थे, उनके पिता का नाम सिंहगुप्त था, उन्होंने एक वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इसी ग्रन्थ के मंगलाचरण को दार्शनिक पहलू से प्रांक कर क्षुल्लक सिद्धसागर ने जैन सिद्ध किया है। प्रतीत होता है कि उनका कथन प्रामाणिक है।
-सम्पादक] रागादिरोगान् सततानुषक्ता
इम मगलाचरण का रचयिता न तो सर्वथा नित्यवादी ही नशेषकायप्रसृतानशेषान् ।
हो सकता है और न क्षगिकवादी बौद्ध ही। तथा जो पौत्सुक्यमोहारतिदाजघान
ईश्वर को सर्वव्यापक तथा अनादि शुद्ध मानते है, उनके योऽपूर्ववैद्याय नमोस्तु तस्मै ॥
मत से रागादि का उमके उत्पन्न होना तथा रागादि रोगो जो लोग जीव के अस्तित्व को नही समझते है, उनके
का नष्ट किया जाना सम्भव नही हो सकता है, अत यह ति में जीव के न होने वाले गगादिको का अस्तित्व
सिद्ध होता है कि उक्त वाग्भट्ट कृत मगलाचरण परिणामी म्भिव नहीं हो सकता है। तथा जो जीव को सर्वथा
नित्य वस्तु को मानने वाले किसी पार्हत् मतानुयायी का नत्य या शुद्ध ही मानते है, उनके मन्तव्य के अनुसार भी
रचा हुआ है। भाव रागादि हो सकते है और न द्रव्य ही । ऐसी कोई जिसके मत मे न ईश्वर के कोई शरीर है और न वह स्तु नही, जो सर्वथा नित्य ही हो और अनित्यता उसमे सर्वव्यापक होने से कोई परिस्पन्दवती क्रिया ही करता है, । हो । इसका कारण है कि वस्तु सत् है तथा परिणामी वह जीवो के रागादि तथा आनुपतिक और काय मे होने नत्य है । इसके विपरीत जो सर्वथा क्षणिक ही है, जिसमे वाले रोगो को कैसे दूर कर सकता है ? वह शरीर के नत्यता किसी प्रकार भी नही है, उस वस्तु का अस्तित्व बिना जीवो को मोहादिक रोगों को दूर करने के उपाय ही नही हो सकता । वस्तु सत् स्वरूप होती है और मत् को बताने वाला अपूर्व वद्य कैसे हो सकता है ? त्पाद्-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होता है।
हाँ, जो पहले संसारी जीव होता है तथा जो अपने रागादि रोग उत्पन्न हो तथा वे जीव मे कुछ काल मोहादिक को दूर कर, अठारह दोप रहित, निर्दोष सकल हक कायम रहें तभी तो उसका रत्नत्रय रूप त्रिफला से परमात्मा बनता है, वह परमौदारिक निरोग शरीर मे हर करने का उपाय भी बन सकता है। किन्तु जिसके स्थित परमात्मा, जिसके दिव्य-वाणी पाई जाती है, वह न्तव्य के अनुसार उनका होना तथा कुछ काल तक अपने और दूसरे के रागादि रोगो को दूर करने वाला हो पी संसारी जीव के उनका बना रहना असम्भव है, उसके सकता है। ति मे उनका निराकरण भी सम्भव नहीं है।
___ "स्थित्युत्पत्तिलयान् गच्छति, इति जगत्।" इस जो लोग सदा से अनादि से ही जिस ईश्वर विशेष को कथन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व या जगत् परिणामी नित्य गादि रहित मानते है उनका यह कहना कि उसने है तथा उस मन्तव्य के अनुसार जीव के रागादिक रोग गादि रोगो को नष्ट किया है स्ववचन बाधित है, अतः तथा काय में होने वाले रोगों का होना तथा उनका