Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 266
________________ भोपुर में राजाल से पूर्व का जन मन्दिर के पेड़ के नीचे ही माता है। जहाँ ईल राजा ने विश्रांति बुलाया गया। उन्होंने 'लक्ष्मी महातुल्य सती...' स्तोत्र ली थी। और हाथ-मुह धोकर जल पान किया था। तथा प्रभु की स्तुति कर धरणेद्र को प्रसन्न किया । पौर धरणे श्वेताम्बर वि. विजयराज (स. १७३७) लिखते हैं- से प्रतिमाजी वहाँ से न हटाने का ममाचार जानकर (गी 'एक दिन राजा घूमते हुए बगीचे मे गया। वहाँ उसको मे) वहाँ ही प्रतिमा के ऊपर मन्दिर निर्माण कराया। मुड़े जल का प्रवाह मिला। राजा घोड़े पर से नीचे सकता है राजा को काष्ठासघीय समझकर या सघ माम्ना उतरा। वह वहाँ बैठा और हाथ-पांव धोये तथा अपने भेद का झगडा फिर खडा न हो। इसलिए माम जनर महल को लौटा' प्रागे फिर कुएं को जाने का तथा कुएँ से को भी प्रार्थिक और श्रमिक मदद देकर मन्दिर निर्मा मूर्ति निकलने का वर्णन है।। का उपदेश दिया हो। __ प्रत. राजा ईल ने इस कूप मे सयत्न यह मूर्ति निकाल यहाँ पौली मन्दिर निर्माण मे राजा को गर्व होने के कर प्रथम वहाँ के तोरणद्वार (महाद्वार) मे स्थापना की सवाल ही पैदा नहीं होता, अत: यह भ्रामक कल्पना बा और पूजी तथा राजधानी की तरफ उसे ले जाते समय वह में शामिल की होगी। क्योकि श्वेताम्बर जिन प्रभ अपनी पुगणी जगह आ गई और रुक गयी। राजा ने पीछे मोमधर्मगणि प्रादि विद्वान भी प्रतिमा के ऊपर ही मन्दि देखा तो प्रतिमाजी स्थिर हो गयी। या मान लो योगायोग का निर्माण मानते है। (प्रचीकरच्च प्रोत्तुगं प्रासादं प्रतिम गजा ने वहा कहो पीछे देखा तो, मूर्ति वहां से न हटी। परि ।) मादि। तब राजा ने जोशी लोगो से जाना कि, मूर्ति राजधानी इस प्रकार मिद्ध हो सकता है कि खरदूषण गजा एलिचपुर नहीं चलेगी, तो उमने सोचा होगा कि अच्छा हो जहाँ में इस लाया वहाँ पर ही विराजमान कन्दू । इसी प्राजतक श्रीपुर ही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान क विचार से पौली मन्दिर का निर्माण हुआ । इसमे भट्टारक अधिष्ठान है। ऐसा नहीं होता तो, दिगम्बर या श्वेताम्ब रामसेन ( ई० स०६८० से १०३५) का पूरा सहयोग साहित्य मे उम अन्य जगह का जरूर ऊल्लेख मिलता। था। स्थानीय लोग उनके हाथ में प्रतिष्ठा होना पसन्द कुछ लोग एलोग का इस मूर्ति के प्रथम स्थान नही करते थे । इसलिए वाद उपस्थित होने लगा तो गम- सम्बन्ध लगाते है, लेकिन वह भ्रात है, क्योकि एलोरा सेन ने भी प्रघूरे मन्दिर में जल्दी से प्रतिमा विराजमान गुफा निर्माण करने से ही ईल राजा का उससे सम्बन्ध है कर बाद मे शेप काम (शिखर मादि) करने का विचार न कि मूर्ति वहाँ से लाने से । ऐमा नहीं होता तो एलोर किया होगा। किन्तु योग के अनूमार प्रतिमा वहाँ मेन और श्रीपुर सम्बन्धी लिखने वाले ब्रह्मज्ञानसागरज हटी। तब मन्दिर को अधूरा ही छोड़कर रामसन वहाँ से (१७वी सदी) इसका जरूर उल्लेख करते । इति अलम् अलग हो गये है। हो सकता है इसमें मेरी भी भूल हो गयी हो तो फिर राजा की अनुमति से मलधारि पद्मप्रभ को विद्वान लोग इस पर अधिक प्रकाश डाले। "बादल सागर का क्षार (बारा) जल पीकर और उसे मीठा एवं स्वादिष्ट बना कर लोक हित की दृष्टि से बरसा देता है। उसी तरह सज्जन पुरुष भी दुर्णनों के दुर्वचनों को सुनकर और उनके परिताप को सह कर उत्तर में मधुर, हितकारी और प्रिय साचन ही बोलते हैं।"

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