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जैन संत भ० वीरचंद्र की साहित्य-सेवा
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एक उल्लेखनीय स्थल है : वर्णन के पढने के पश्चात् श्री मूलसंघे महिमा निलो मने देवेन्द्रकीरति सूरिराय । पाठकों के आँसू बह निकलते है । इस वर्णन का एक स्थल श्री विद्यानं दि वसुधा निलो, नरपति सेवे पाय ॥१॥ पर देखिये :
तेह पाटे उदयो जति, लक्ष्मीचंद्र जेण प्राण । कनकीय कंकडा मोडती, तोडती मणिमि हार ।
श्री मल्लिभूषण महिमा घणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ॥२॥ लुंचती केश कलाप, विलाप करि अनिवार ॥
तेह गरु चरण कमल नमी, ऊने वल्लि रची छे रसाल । नयणि नीर काजलि गलि, टलवलि भामिनी भूर। श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य प्रपार ॥३॥ किम करू कहि रे साहेलडी, विहि नडि गयो मझ नाह। जंब कुमर केवली हवा, प्रमे स्वर्ग मुक्ति वातार।
काव्य के अन्त मै कवि ने अपना जो परिचय दिया जे भवियण भावे भाव से, ते तरसे संसार ॥४॥ है वह निम्न प्रकार है -
कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया श्री मूल संघि महिमा निलो, जती निलो श्री विद्यानन्द । है। सूरी श्री मल्लिभूषण, जयो जयो सूरी लक्ष्मीचद ॥१३५॥ ३. जिन प्रांतरा जयो सूरी श्री वीरचंद गुणिद रच्चो जिणि फाग ।
यह कवि की लघु रचना है जो उदयपुर के उसी गातो सांभलता ए मनोहर सुखकर श्री वीतराग ॥१३६॥ गुटके मे सग्रहीत है। इसमे २४ तीर्थकरी के एक के बाद जीहां मेदनी मेरु महीधर, दीपसायर जगि जाम । दूसरे तीर्थकर के होने मे जो समय लगता है उसका वर्णन जिहां लगि ए चंदो नंदो सदा फाग ए ताम ।।१३७॥ किया गया है । काव्य सौप्टव की दृष्टि से रचना सामान्य
कवि ने फाग मे रचनाकाल का कही भी उल्लेख है। भापा भी वही है जो कवि की अन्य रचनाओ की नही किया है। लेकिन यह रचना सवत् १६०० क पहल है। दो वर्णन देखिये - की मालूम होती है।
"उणा प्रउढ मासे करी वरस हुंता जब च्यार । २. जम्बू स्वामी वेलि
श्री प्रादिनाथ तब शिव गया त्रीजा काल मझार ॥१॥ यह कवि की दूसरी रचना है। इसकी एक अपूर्ण प्रति
सत्तर पथ त्रोहों वरस, सुहनों त्रीयो काल ।
श्री बद्धमान सिद्धोतरा, भंजनी भव जंजाल ॥२॥ लेखक को उदयपुर (गजस्थान) के खण्डेलवाल जैन
जेणे प्रांतरे जिन जेहवा, तेह यूँ तेह माहे पाप । मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हुई थी। जो एक गुटके मे मग्रहीत है। प्रति जीर्ण अवस्था में है और उसके
सागरोपम कोडाकाडि एणी पेरें पुरो थाप ॥३॥" कितने ही स्थलो के अक्षर मिट गये है। इसमे अन्तिम
रचना का अन्तिम भाग निम्न प्रकार हैकेवली जम्बू स्वामी का जीवन चरित वर्णित है। जम्बू
'सत्यशासन जिन स्वामीनं जेहन तेहनो जग। स्वामी का जीवन जैन कवियों के लिये अाकर्षक रहा है।
हो जावे वशे भला, ते नर चतुर सुचग ॥६॥ इसलिये संस्कृत, अपभ्र श, हिन्दी, राजस्थानी एव अन्य
जगे जनम्यं धन्य तेहनूं तेहनूं जीव्यूं सार । भाषामो में उनके जीवन पर विविध कृतियाँ उपलब्ध
रग लागे जेहने मने, जिन शासनह मझार ॥७॥ होती है।
श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु गच्छपती तिस पाटे सार शृंगार । वेलि की भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है जिस श्री वीरचन्द्र गोरे कहा, जिन प्रांतरा उदार ॥८॥" पर डिगल का प्रभाव है । यद्यपि वेलि काव्यत्व की दृष्टि ४. संबोध संताणु भावना से उतनी उच्चस्तर की रचना नहीं है किन्तु भाषा के यह एक उपदेशात्मक कृति है जिसमे ५७ पद्य है तथा अध्ययन की दृष्टि से अच्छी रचना है। इसमे दोहा सभी दोहो के रूप मे है। उसकी प्रति भी उदयपुर के त्रोटक चाल छन्दो का प्रयोग हुआ है । रचना का अन्तिम उसी गुटके मे सगृहीत है जिसमे कवि की अन्य रचनाये भाग जिसमे कवि ने अपना परिचय दिया हुआ है जो लिखी हुई है। भावना के अन्त में कवि ने अपना जो परिनिम्न प्रकार है :
चय दिया है वह निम्न प्रकार है :