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बिना द्रव्य (मात्मा) का अस्तित्व नहीं है१ । सत्यता अज्ञानो तथा अनभिज्ञ ऐसा नहीं कर पाता। अत: अनेकान्तात्मक है, अतः स्वभाव भी विभिन्न प्रकार दिन प्रतिदिन के जीवन में जो हम किसी वस्तु का का है। एकात्मक होते हुए भी पार्थक्य लिए हुए ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह केवल विशेष समय तथा है, सार्वलौकिक होकर भी विशेष रूप से स्थायी परिस्थितियों पर आधारित होता है। अतः हमारा होकर भो परिवर्तनशील है।
ज्ञान सोमित तथा हितों के विपरीत होता है। हमारे इस प्रकार से जैन दार्शनिकों ने अपने ज्ञान- दिन प्रतिदिन के झगड़ों का भो एकमात्र यही शास्त्र का निर्माण इस विचार पद्धति पर किया कारण है। यहाँ पर चार अन्धों का भी उदाहरण तया स्थावाद के तर्क का प्रतिदिन किया। यहाँ दिया जाता है जिन्होंने हाथो का स्वरूप विभिन्न स्थाद्वाद पर दो शब्द उपयुक्त होगे।
प्रकार से दिया, क्योंकि उन्होंने हाथी को सम्पूर्ण स्याद्वाद अथवा 'प्रत्येक निर्णय सापेक्ष है' का रूप से न देखकर एक-एक अंग को छकर देखा। सिद्धान्त जैन परम्परा की आधारशिला है। इसने अतः यह जैन विचार पद्धति तीसरी धारा है ही जैन धर्म को 'सहिष्णु धर्म' के नाम से प्रसिद्ध
जो दो प्रतियों अर्थात् 'पास्मा है' तथा 'आत्मा नहीं किया। जन विचारकों का कथन है कि विभिन्न
है' के मध्य मार्ग को अपनाती है। अतः यह परम्परा प्रकार की वस्तुमों से सम्बन्धित तत्कालीन अथवा कालीन ज्ञान जो हमारे पास है वह यह सिद्ध करता
अब्राह्मण तथा अबोद्ध भी कहो जाती है। अब्राह्मण है कि प्रत्येक वस्तु अथवा द्रव्य के अनेक गण हैं। इसलिए क्योंकि इस परम्परा ने वेदान्त के प्रात्मवाद एक सर्वज्ञ 'केवल ज्ञान के द्वारा अनेक गुणों वाले के सिद्धान्त को पूर्ण रूप से अस्वीकार नहीं किया द्रव्य का तत्कालीन ज्ञान प्राप्त कर सकता है. परन्तु
और अबौद्ध इसलिए क्योंकि इसने बुद्ध धर्म के १--द्रव्य पर्याय विर्त पर्याया द्रव्य वजिताः।
अनात्मवाद' के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं
किया। एक कदा केन कि रूपा दष्टा मानेन केनवा ।।
सन्मतितर्क २--उमा स्वाति तत्त्वार्थ सूत्र ५
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