________________
प्रोम प्रहम्
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकलनयविलमिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १७
१
वर्ष १७ । किरण-५ ।
औ र-सेवा-मन्दिर, २९ वरियागंज, दिल्ली-६
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६१, वि० ग० २०२१
दिसम्बर । सन् १६६४
श्रीपद्मप्रभ-जिन-स्तवन
बभार पद्मा च सरस्वतीं च। भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्भ्याः ॥ सरस्वतीमेव समग्र-शोभा । सर्वज्ञ-लक्ष्मी-ज्वलितां विमुक्तः ॥२॥
-समन्तभद्राचार्य
अापने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मी की प्राप्ति के पूर्व-अहंन्त-अवस्था मे पहले- लक्ष्मी और सरस्वती दोनो को धारगा किया है-उस समय गृहस्थावस्था में पाप यथेच्छ धन-सम्पत्ति के ग्वामी थे, अापके यहाँ लक्ष्मी के ग्राट भण्डार भर थे, माथ ही अवधिज्ञानादि लक्ष्मी में भी विभूषित थे और मरस्वती आपके कण्ट में स्थित थी। बाद में विभक्त होने पर-जीवन्मुक्त (अहंन्त) अवस्था को प्राप्त करने पर-अापने उस पूर्ण शोभा वाली मरस्वती को-दिव्यवाणी को ही धारण किया है, जो सर्वज-लक्ष्मी मे प्रदीप्त थी--उस समय आपके पाम दिव्यवाणीरूप मरस्वती की ही प्रधानता थी, जिसके द्वारा जगत के जीवों को उनके कल्याण का मार्ग सुझाया गया है।