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दशवकालिक के चार शोध-टिप्पण
मुनिश्री नथमल जी
दावकालिक सूत्र मे अनेक शब्द ऐसे है जो प्राचीन परम्परामो और संस्कृति के द्योतक है। हम यहा 'धूव- णेति', 'हड', 'सिणाण' और 'पद्मग' इन चार शब्दों की मीमांसा प्रस्तुत करते है। इसका प्राधार अगस्त्यसिंह स्थविर तथा जिनदास चूणि द्वय और हरिभद्रसूरि की टीका है। १. धूम-नेत्र (धूव-णेत्ति)
शिर-रोग से बचने के लिए धूम्रपान करना अथवा धूम्र-पान की शलाका रखना अथवा शरीर व वस्त्र को धूप खेना-यह अगस्त्यसिह स्थविर को व्याख्या है। जो क्रमशः धूम, धूम-नेत्र और धूपन के आधार पर हुई
जिनदास महत्तर के अनुसार रोग की आशंका व शोक आदि से बचने के लिए अथवा मानसिक आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग किया जाता था।
निशीथ में अन्य तीथिक और गृहस्थ के द्वारा घर पर लगे धूम को उतरवाने वाले भिक्ष के लिए प्रायश्चित का विधान किया है५ । भाष्यकार के अनुसार दद्रु आदि की औषधि के रूप मे धूम का प्रयोग होता था। ___यह उल्लेख गृह-धूम के लिए है किन्तु अनाचार के प्रकरण मे जो धूमनेत्र (धूम-पान की नली) का उल्लेख है, उसका सम्बन्ध चरकोक्त वरेचनिक, स्नैहिक और प्रायोगिक धूम से है। प्रति दिन धूम-पानार्थ उपयुक्त होनेवाली वति को
धूम-नेत्र का निषेध उत्तराध्ययन में भी मिलता है। यद्यपि टीकाकारो ने धूम और नेत्र को पृथक् मानकर व्याख्या की है पर वह अभ्रान्त नही है । नेत्र को पृथक् मानने के कारण उन्हे उसका अर्थ प्रजन करना पडा३, जो कि बलात् लाया हुआ-सा लगता है।
१. अगस्त्य चणि ।। धूग पिबति 'मा सिररोगातिणो भविस्संति' प्रागेगपडिकम्म, अहवा "धूमणे" त्ति धूमपानसलागा, धूवेत्ति वा अप्पाणं वत्थाणि वा। २. उत्तराध्ययन, १५८ ....... "वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । पाउरे सरणं तिगिच्छिय च त परिचाय परिव्वए
स भिक्खू ॥ ३. उत्तराध्ययन १५८ नेमिचन्द्रिया वृत्ति, पत्र २१७। नेतं ति नेत्रशब्देन नेत्तसंस्कारकमिह समीरांजनादि गृह्यते।
४. जिनदास चरिण पृ० ११५ धूवर्णत्ति नाम आरोग्यपडिकम्म करेइ धूमपि, इमाए मोगाइणो न भविष्सति, अहवा अन्न वत्थारिण वा धवेई।
५. निशीथ १२५७, जे भिक्खू गिहधूम अण्णउत्थिएण वा गारित्थएण वा परिसाडावेत वा सातिज्जति ।
६. (क) निशीथ भाष्य गाथा ७६८ घरधूमोसहकज्जे, ददु किडिभेदकच्छु अगतादी। घरधूमम्मि णिबधो, ताज्जातिम सूयणट्ठाए ।
(ख) चरकसहिता सूत्र ३।४-६, पृ. २६ ___कुष्ठ, दद्रु, भगन्दर, अर्श पामा आदि रोगों के नाश के लिए कई योग बतलाए है। उनमे छठे योग में और वस्तुओं के साथ गृह-धूम भी है
मन शीलाले गृहधूम एला काशीसमुस्तार्जुनरोध्रमर्जा. ॥४॥
कुष्ठानि कृच्छाणि नवं किलासं सुरेन्द्रलुप्त किटिम
भगन्दराशस्यपची सपामां हन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम ॥६॥