Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 240
________________ शालिक के चार शोध-टिप्पण प्रायोगिकी वर्ति, स्नेहनार्थ उपयुक्त होनेवाली वर्ति को स्नैहिकी- वर्ति और दोष - विरेचन के लिए उपयुक्त होने वाली बात को रेचनिकी बति कहा जाता है। प्रायोगिकी बर्ति के पान की विधि इस प्रकार बतलाई गई है --षी प्रादि स्नेह से चुपड़ कर बर्ति का एक पार्श्व धूम-नेत्र पर लगाए और दूसरे पाव पर याग लगाए। इस हितकर प्रायोगिकी वति द्वारा धूमन्यान करें । उत्तराध्ययन के व्याख्याकारों ने धूम को मेनसिल श्रादि से सम्बन्धित माना है२ । चरक मे मेनसिल प्रादि के धूम को शिरो विवेचन करने वाला माना गया है३ । धूम-नेत्र कैसा होना चाहिए, किसका होना चाहिए और कितना बडा होना चाहिए तथा धूम्रपान को और कब करना चाहिए, इनका पूरा विवरण प्रस्तुत प्रकरण में है। सुश्रुत के चिकित्मा-स्थान के चालीसवे अध्याय मे धूम का विशद वर्णन है। वहाँ धूम के पाँच प्रकार बतलाए है । चरकोक्त तीन प्रकारो के अतिरिक्त 'मन' और 'वामनीय' ये दो और है । नाग मे पन और पयान दोनो का निषेध ४। शीलाक मूरि ने इसकी व्याख्या मे पिया है कि मुनि शरीर और वस्त्र को धूप न दे श्रौर वासी आदि को मिटाने के लिए योग-वर्ति-निष्पादित धूम न पीए५ । सूत्रकार ने धूप के अर्थ में 'पूर्ण' का प्रयोग किया है और सर्वनाम के द्वारा धूप के अर्थ मे उसी को ग्रहण १. चरक सूत्रस्थानम् ५।२१ शुष्क निगर्भा ता यतिधमनेावानरः । स्नेहाक्तामग्निसप्लुष्टा पिवेत्प्रायोगिकी सुखाम् ॥ २. उत्तराध्ययन १५१८ नेमिचन्द्रिया वृत्ति, पत्र २१७ धूम मनः शिलादिसम्बन्धि ३ चरक सूत्रस्थानम् ५।२३ श्वेता जोतिष्मती चंद हरितालं मनःशिला। गन्धाश्चागुरुपत्राचा धूमः शीर्षविरेचनम् ॥ ४. (क) सूत्रकृताग २।१।१५ पत्र २१७ णो धूवणे, णो वं परिभाविएज्जा । ५. ( ख ) वही, २।४।६७, पत्र ३७० णो धूवरित विश्राइते । २२३ किया है। इससे जान पडता है कि तात्कालिक साहित्य में धूप और धूम दोनो के लिए 'धूवण' शब्द का प्रयोग प्रचलित था । हरिभद्र सूरि ने भी इसका उल्लेख किया है। प्रस्तुत श्लोक मे केवल 'धूवण' शब्द का ही प्रयोग होता तो इसके धूप और धूम ये दोनो ही धयं हो जाते, किन्तु यहाँ धूप-पंति' शब्द का प्रयोग है इसलिए इसका सम्बन्ध धूमपान से ही होना चाहिए। वमन, विरेचन और वस्तिक के साथ 'धूम-नेत्र' का निकट सम्बन्ध है६ । इसलिए प्रकरण की दृष्टि से भी 'घूपन' की अपेक्षा 'धूमनेत्र अधिक उपयुक्त है। है अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'धूवणोत्ति' पाठ को मूल माना और 'धूमणेत्ति' को पाठान्तर हरिभदरिने मूल पाठ 'धूत्रणेत्ति' मानकर उसका संस्कृत रूप धूपन किया है। और मतान्तर का उल्लेख करते हुए उन्होंने इसका अर्थ धूम-पान भी किया है। पर्व की दृष्टि से विचार करने पर चूणिकारो के अनुसार मुख्य अर्थ धूमपान है और धूपखेना गौण अर्थ है । टीकाकार के श्रभिमत में धूप- खेना मुख्य अर्थ है और धूम-पान गौरा। इस स्थिति मे मूलपाठ का निश्चय करना कठिन होता है, किन्तु इसके साथ जुड़े हुए 'इति' शब्द की अर्थ-हीनता और उत्तराध्ययत मे प्रयुक्त 'धूमन' के माधार पर ऐसा लगता है कि मूल 'भ्रमण' या '' रहा है। बाद में प्रतिलिपि होते. होते यह 'धूवणे' त्ति के रूप में बदल गया ऐसा सम्भव है । प्राकृत के लिंग तन्त्र होते है, इसलिए सम्भव है कि यह 'धूवणेत्ति' या 'धूमणेत्ति' भी रहा हो । बौद्ध भिक्षु धूमपान करने लगे तब महात्मा बुद्ध ने उन्हें घूमनेत्र की अनुमति दी फिर भिक्षु वनं रौप्य 1 ६. सूत्रकृताङ्ग । १।१५, टीका पत्र २६६ तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणा वा धूपन कुर्यात् नापि कासाद्यपनयनार्थ एवं योगवतिनिपदितमापिबेदिति । ७. चरक सूत्रस्थान ५।१७।३७ ८. धगत्यसिंह चूर्ण-पूर्वमेति सिगोगो २. हारिभद्रीय टीका, पत्र ११० धूपनमित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् प्राकृतसंन्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते ।

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