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नेमिनाह चरिउ
श्री अगरचन्द नाहटा
उत्तर भारत की सभी प्रान्तीय भाषाश्री की जननी अपभ्रंश भाषा मे ८वी शताब्दी से लेकर संवत् १७०० तक में जो विशाल साहित्य का सृजन हुआ, उसमें कति पय सिद्धों तथा 'सन्देश रासक' के अतिरिक्त जितना भी साहित्य है वह सभी जैन विद्वानों की रचना है। श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों सम्प्रदाय के कवियों ने विविध प्रकार का और बहुत बड़ा साहित्य अपभ्रंश मे रचा है । उसमे से दि० अपभ्रंश साहित्य की जानकारी तो काफी प्रकाश में या चुकी है पर स्वेताम्बर अपन श साहित्य की जानकारी बहुत हो थोड़ी प्रगट हो सकी है। क्योंकि कुछ रचनाएँ तो प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों में सम्मिलित है और बहुत-सी रचनाएँ अब भी अप्रकाशित अवस्था में ही पड़ी है । उन रचनाओ का इतना अधिक प्रचार भी नहीं हुआ, इसलिए दि० अपभ्रंश रचनाओं की तरह उनकी हस्तलिखित प्रतियों भी अधिक नहीं मिलती। महत्वपूर्ण रचनाओ की भी एक-दो प्रतियाँ ही किसी भंडार में प्राप्त है, उदाहरणार्थ प्रस्तुत लेख में श्वे० अपभ्रश साहित्य के सबसे बड़े काव्य का सक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है । इसकी एक प्राचीनतम ताड़-पत्रीय प्रति जैसलमेर भण्डार मे है । इसी तरह 'विलास वइ कहा' नामक बहुत ही सुन्दर कथा-ग्रन्थ की २ ताडपत्रीय प्रतियाँ भी जैसलमेर भण्डार में ही है। 'सयम मजरी टीका' की भी एकमात्र प्रति भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, पूना में है । इसी तरह जिन प्रभरि की कई अपना रचनाएँ है पर उनकी ताड़पत्रीय प्रतियाँ केवल पाटण के जैन भण्डार में ही प्राप्त है । दि० अपभ्रंश साहित्य मे बड़े-बड़े काव्य अधिक है। इ० अपभ्रंश साहित्य मे नेमिनाह चरिच' और विलास बई- कहा के अतिरिक्त सभी छोटी-छोटी रचनाओं के रूप में है 'विलास बईकहा' की कथा और प्रतियों का सक्षिप्त परिचय मैंने अपने अन्य लेख में दिया है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से प्रकाशित
'त्रिपथगा' नामक पत्रिका में छपने भेजा हुआ है । इस काव्य का परिमाण ३६२० श्लोक का है जब कि प्रस्तुत लेख मे जिस 'नेमिनाह चरिउ' का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है उसका परिमाण २०३२ इलोक का है। अर्थात् 'विलास नई कहा' से दुगनी से भी अधिक है। रायपुर के डा० देवेन्द्रकुमार जैन को मैंने 'विलासवई कहा' की प्रतिलिपि अहमदाबाद से प्राप्त करने की सूचना दी थी१ । तदनुसार उन्होंने उसको मगाकर पढ़ा तो उनका कहना है है कि समूचे अपभ्रंश कथा साहित्य मे 'विलासवई कहाँ" सबसे सुन्दर है। उन्होंने इस कथा का विशेष परिचय अपने शोध प्रबन्ध मे दिया है ।
मिनाह चरिउ बड़गच्छ के श्रीचन्द्र सूरि के शिष्य हरिभद्रसूरि की रचना है। इसका सर्वप्रथम परिचय डा. हरमन जाकोबी को प्राप्त हुआ था । उन्होंने उस काव्य के ३४३ रड्डा पद्यो वाले सनतकुमार चरित को सन् १९२१ मे सम्पादित करके जर्मनी से प्रकाशित किया था। मेद है कि ४३ वर्ष बीत जाने पर भी इस महत्वपूर्ण महा काव्य के प्रकाशन की बात तो दूर पर उसको पढ़ कर आवश्यक विवरण प्रकाशित करने का भी आजतक किसी ने कष्ट नही उठाया, यद्यपि सन् १९२३ में प्रकाशित जैसलमेर जैन भाण्डागारीय जैन प्रथानाम सूचीपत्रम् के पृष्ठ २७-२८ मे इस काव्य के आदि और अन्त के कुछ पद्य भी प्रकाशित हुए थे। फिर भी अपभ्रंश साहित्य पर स्वतन्त्र शोध प्रवन्ध लिखने वाले डा० हरिवंश कोछड़ ने अपने 'अपभ्रंश साहित्य' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ २२३-२२६ में सनतकुमार चरित्र का तो परिचय दिया है पर नेमि नाह चरिउ' का केवल कोष्ठक में नामोल्लेख के अतिरिक्त
१. डा० याकोवी के सन् १६१५ के लगभग उक्त प्रति राजकोट के एक मुनि के पास मिली वह प्रति ने साथ ले गये थे । अन्यत्र भी जरूर होगी।