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जैन समाज के लिए तीन सुझाव
प्राचार्य श्री तुलसो विगत दो ही दशको में हम सबने सामाजिक और संवत्सरी पर्व राष्ट्रीय स्थितियो मे इतने विराट परिवर्तन देख लिए जैन-समाज की भावात्मक एकता के लिए अत्यन्त है. जितने हमारे पूर्वज शताब्दिया और सहस्राब्दियों में अपेक्षित है कि समग्र जैन समाज का संवत्सरी पर्व एक देखा करते थे । शासन-तन्त्र बदला है, अर्थ-तन्त्र बदला है
हो। इससे जैन-समाज में एक नया उल्लास व नया बल व नाना सामाजिक मूल्य बदले है। वर्तमान स्थितियो में
पायेगा, ऐसा विश्वास है। विगत के इतिहास को देखते उस वर्ग व उस समाज के लिए स्वाभिमान का जीवन जी
हुए यह कार्य कठिन लगता है, किन्तु वर्तमान की अपेलेना कठिन है, जो केवल अपने ढर्रे पर ही अवलम्बित
न है, जा केवल अपन ढर पर हा अवलाम्बत क्षाओ को समझते हुए हमे इसे सरल बना लेना रहता है।
चाहिए। प्राग्रह हर समन्वय को कठिन बनाता है और आज मजदूर, किसान व हरिजन सभी अपने संगठन उदारता उसे सरल । श्वेताम्बरो मे सम्वत्सरी सम्बन्धी के बल पर आगे बढ़ रहे है, अपने प्राचार-विचार व मतभेद चतुर्थी या पचमी बस इतने में समा जाते है। रहन-सहन की पद्धतियाँ बदल रहे है और विभिन्न दिगम्बरो में दश लाक्षणिक उमी पचमी से प्रारम्भ होते क्षेत्रों में प्रभाव अजित कर रहे है। जैन समाज तो सदा है। श्वेताम्बर परम्पराए यदि चतुर्थी या पचमी के विकल्प से ही दूरदर्शी समाज रहा है। देश-काल के साथ उसने से केवल पचमी के विकल्प को अपना लेती है तो वे सदा ही सामजस्य बैठाया है। वह जितना अर्थ-प्रधान है परस्पर मे एक हो ही जाती है साथ ही दिगम्बर समाज उतना बुद्धि-प्रधान भी है। इस समाज के प्राचार्य व मुनि को भी वे एक-सूत्रता में जोड़ लेती है। उस स्थिति में भी युग-द्रष्टा रहे है। देश-काल के अनुरूप अनुसूचन वे दिगम्बर समाज का भी नैतिक दायित्व हो ही जाता है सदा से ही समाज को देते रहे है। नाना वादी व नाना कि वह अपने दश लाक्षणिक पर्व के अन्तिम दिन की भौतिक विचार-सरणियो से सकुल वर्तमान युग मे उनका तरह ग्रादि को भी आध्यात्मिक महत्व देकर जैन एकता दायित्व और बढ़ जाता है कि वे यथासमय यथोचित की कडी को और सुदृढ करे। मार्ग-दर्शन समाज का करे। वर्तमान युग में जीने की इस परिकल्पना मे न किसी परम्परा की न्यूनता है, और विकासोन्मुख बने रहने की पहली शर्त है-संगठन । न किसी परम्परा विशेष की अधिकता। यत किचित जैन समाज अनेक शाखाग्रो व उप-शाखायो मे बँटा है। सभी को बदलना पड़ता है और बहुत कुछ सभी का बीसपथ और तेरापथ----ये दो उपशाखाएँ दिगम्बर समाज सुरक्षित रह जातः है । प्रश्न रहता है चिरतन परम्परामो की हैं तथा मूर्तिपूजक, स्थानकवासी व तेरापथ--ये तीन मे यत्किचित् भी परिवर्तन करने का हमारा अधिकार उपशाखाएं श्वेताम्बर समाज की है । कुछ अन्य भी रहता है क्या ? इसका उत्तर परम्पराएँ हा स्वय दे देती प्रवान्तर शाखाएँ होगी । सभी शाखा-प्रशाखाग्रो मे है। इतिहास ऐसी अनगिनत परम्पराएँ हमारे सामन मौलिक भेद बहुत कम है । जो है उसे और कम करना, रखता है जो देश-काल के साथ बनती है और देश-काल अाज हमारा सबका कर्तव्य है। इस दिशा में आगे बढ़ने के साथ बदलती रही है। शास्त्रीय परम्पराओं की भी के लिए मैं वि० स० २०२१ तथा वीर निर्वाण समय-समय पर नवीन व्याख्याएँ बनी है। एकान्तवादिता स० २४६१ के वीर निर्वाण दिवस-दीपावली पर्व पर से हटकर सोचने से ऐसे अनेक मार्ग सहज ही मिल सकते समग्र जैन समाज के सम्मुख तीन सुझाव प्रस्तुत करता है जो शास्त्र और परम्परा से अवरोध रहकर हमे रास्ता
दे सकते है।