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प्राचीन मथुरा के जैनों को संघ-स्यवस्था
नही बैठता । श्वेताम्बर माथुर संघ के ये उल्लेख भी विरल हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्टपर्व (१२वी शती) मे उक्त हैं, अन्यत्र कहीं इस मंघ का उल्लेख पाया गया नही जान दोनो पट्टावलियो मे उल्लिखित प्राचीन गुरुप्रो के मबन्ध पडता। दिगम्बर परम्परा के माथुर सघ की स्थापना मे अनेक सूचनाएँ एव कथाएं मिलती है, और तेरहवी से मुनि राममेन ने मथुरा नगर मे वि० सं० ६५३ मे की थी लेकर १६वी शती तक लिखी जाने वाली जो दर्जनो ऐमा देवमेन कृत दर्शनसार से मूचित होता है । यह तिथि पट्टावलियाँ उपलब्ध है उनमे महावीर निर्वाण से लेकर कुछ सदिग्ध हो सकती है किन्तु उक्त सघ के उल्लेख प्रागमो की संकलना तक, लगभग १००० वर्ष के बीच मथुग के निकटवर्ती प्रागरा आदि स्थानो मे ११-१२वी होने वाले श्वेताम्बर परम्परा सम्मत गुरुपों के विवरण शती से मिलने प्रारम्भ हो जाते है अन्यत्र भी। प्रतएव उन दोनो पट्टावलियो के आधार पर ही निबद्ध हुए है। ऐसा लगता है कि १०वीं शती ई. के मध्य लगभग दोनों इन प्राचीन पट्टावलियो (थेरावलियों) की प्राचीनतम ही परम्पराओं ने मथुरा में अपने सस्थानो के पुनरुद्धार उपलब्ध प्रतियाँ भी १२वी शती से अधिक प्राचीन नहीं का प्रयत्न किया था---प्राप्त अवशेषो से सिद्ध होता है प्राप्त होती, अतएव उनके प्राधार पर उनके मूलपाठ उस काल में, प्राय' तभी निर्मित एक दिगम्बर तथा की वास्तविक प्राचीनता निश्चित करना भी कठिन है। श्वेताम्बर मन्दिर ककाली टीला स्थित प्राचीन स्तुप के यह सभव है कि वे देवद्धिगणी के उपरान्त भी कई बार आस-पास विद्यमान थे। अतएव यह कहना तो कठिन है परिवर्तित, मशोधित, सवधित प्रादि हुई हो। कि किसने किसका अनुकरण किया, सभव है दोनो ने जिस रूप में भी ये उपलब्ध है, नन्दी सूत्र की पट्टामहयोग सद्भाव पूर्वक ही यह पुनरुद्धार कार्य किया हो वली मे तो गण-शाखा-कुलो का कोई उल्लेख ही नही और उसी उपलक्ष में इस कार्य का नेतृत्व करने वाले है । कल्पसूत्र थेरावलि के दो सस्करण प्राप्त होते हैउभय सम्प्रदाय के प्राचार्यों में अपना-अपना माथुर सघ एक 'मक्षिप्त वाचना', दूसरी 'विस्तार वाचना' । सक्षिप्त स्थापित किया हो । एक बात और ध्यान देने को है कि वाचना में भगवान महावीर ११ गणधरो के नाम और मथरा में इसके पूर्व दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद लक्षित नही गोत्र तथा उनके उपरान्त सुधर्म से लेकर वज्रसेन पयन्त होता। और जबकि उसमे प्राचीन शिलालेखो से अकित १५ थेरो के नाम और गोत्र अनुत्रम से दिये है। उममे (तथा लेख रहित भी) सभी जिन प्रतिमाएँ पूर्णतया । हवे नम्बर पर सुहस्ति के शिष्य युगल-मुस्थित और दिगम्बर है, उन लेखों मे उल्लिखित उपरोक्त गण- सुप्रतिबद्ध का नाम दिया है और उनका समुच्चय विशेषण गच्छादि में से अनेक का उल्लेख केवल श्वेताम्बर अनु- 'कोडिय काकदण' बताया है। इन दोनो का थेर पद थतियों में ही प्राप्त होता है, किसी दिगम्बर ग्रन्थ में स क्त रहा मूचित होता है। अतिम थेर वज्रसेन के अभी तक नही हुआ है।
चार शिष्या-नाइल, पोमिल, जयन्त और तापस से __श्वेताम्बर सम्प्रदाय की पट्टावालियो-गुर्वावालियो नाइली, पोमिला, जयन्ती और तपस्वी नामक चार आदि मे कल्पसूत्र थेरावली और नदीसूत्र पट्टावली ही शाखायो के चल निकलने का निर्देश करके यह पट्टावली सर्वप्राचीन मानी जाती है। इन दोनो के मूल रचयिता समाप्त हो जाती है। किन्तु इसके उपरान्त विस्तार श्वेताम्बर प्रागमों के सकलन एव पुस्तकारूढ़ का वाचना' मे उपरोक्त १५ थेगे के सम्बन्ध मे कतिपय देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (४५३-४६६ ई.) बताये जाते अन्य सूचनाएं भी दी है जिनमें प्राचीन गण, शाखा, है। कतिपय नियुक्तियो (छठी शती ई०), वसुदेव हिडि कुलो प्रादि की उत्पत्ति की कथाएँ उल्लेखनीय एव इस (६-७वी शती), हरिभद्रीय विशेषावश्यक भाष्य (८वी प्रसग मे महत्त्वपूर्ण हैं । शती ई.) भद्रेश्वर की कथावली (११वीं शती) और
(क्रमशः)