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अनेकान्त
प्रथम शताब्दी ई. के मध्य के उपरान्त इस भेद नाम के चार उपसंघों की स्थापना की बताई जाती है सूचक प्रवृत्ति ने अधिक बल पकड़ा दीखता है जो प्रकारण और कहा जाता है कि उनके शिष्य चन्द्रसूरि ने चन्द्र नही था । इस समय के लगभग तक दक्षिणापथ के जैना- गच्छ को और प्रशिष्य सामन्तभद्र ने बनवासीगच्छ की चार्यों ने अपनी परम्पग में सुरक्षित पागम ज्ञान के बहु- स्थापना की थी। वज्रसेन के पूर्व भी-शुग-शककाल मेंभाग को कसाय पाहुड, पटखडागम, मूलाचार, कुन्दकुन्द शायद कुछ एक गणगच्छ आदि स्थापित हो चुके थे, प्रणीत पाहुड ग्रन्थों आदि के रूप मे यथावत या सार रूप ऐसा कतिपय पट्टावलियो से ध्वनित होता है, किन्तु किसी सकलित एव लिपिबद्ध कर लिया था। इसमे सभवतया भी पट्टावली में उन पूर्ववर्ती गणगच्छादि की उत्पत्ति एवं मथुग का सरस्वती आन्दोलन भी पर्याप्त प्रेरक रहा था। विकास का कोई इतिहास, या सक्षिप्त सूचनाएं भी, दूसरी पोर पश्चिमी एव मध्य भारत का साधुदल इस उपलब्ध नही होते । मथुरा के इन शिलालेखो मे अवश्य प्रकार पागम सकलन एव लिपिबद्धीकरण तथा स्वतन्त्र ही उनमें से कुछ के नाम प्राप्त होते है । ग्रन्थ प्रणयन का भी विरोधी ही बना हुआ था। इसी
वस्तुतः प्रथम शती ई० के उत्तगध मे जैन संसार मे समय के लगभग एक वृद्धमुनि सम्मेलन मे दक्षिणापथ के
घटित होने वाली उपरोक्त क्रान्तिकारी घटनाओ के सघाध्यक्ष आचार्य अहंबलि ने उक्त मध को, जिसे
प्रभाव से मथुरा के जैनी अछूते नहीं रह सकते थे। क्या मूलमघ कहा जाने लगा था, नदि सिह, देव, सेन, भद्र,
आश्चर्य है जो उन्होने भी अपने गण-शाखा-कुल प्रादि प्रादि उपसघों मे सगठित होने की अनुमति दे दी थी
उन नामो के आधार पर जिन्हे वे सुविधा के लिए मूल सघ में यह उपसघीकरण उसके कुछ पूर्व ही अस्तित्त्व
विशिष्ट स्थानो से आने वाले का विशिष्ट गुरु की मे आ चुका होगा, तभी तो उसे उक्त सम्मेलन मे मान्यता
परम्पग मे होने वाले साधुप्रो को चीन्हने के लिये सौ प्रदान की गई । दक्षिणापथ के साधुप्रो के इन दोनो कार्यो
दो सौ वर्ष से ही प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर चुके थे अब (शास्त्र लेखन एव सघ-सगठन) का ही यह परिणाम
(प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध मे) ही विधिवत व्यवस्थित हुया प्रतीत होता है कि वि० स० १३६ (सन् ७६ ई०)
एव सगठित किया हो। मे गुजरात की बलभी नगरी मे उस केन्द्र के साधु मघ ने स्वय को दक्षिणी साधु सघ से पृथक स्वतन्त्र घोषित कर
मथुरा के इन शिलालेखों मे तीन गण-कोटिय, दिया । या तो उन्होने स्वय अथवा दक्षिणी साधुग्रो ने उन्हे
वारण और उद्देहकिय; ६ शाखा-वइरी, उच्चै नगरी, प्राय. उसी काल से श्वेताम्बराम्नायी कहना प्रारम्भ
विद्याधरी, मज्झमिका, हरितमालगढ़ीय, पचनागरी, कर दिया था१ । मभवतया इसी की प्रतिक्रिया के रूप में
वज्रनागरी, साकिष्य और पोतपुत्रिका, तथा १४ कुलमहावीर निर्वाण स०६०६ (सन् ८२ ई०) मे दक्षिण के स्थानीय, ब्रह्मदासीय, चेटिय (चेतिय), वच्छलिका, मलमपी साधयो ने भी विशेषकर रथवीपर मे स्वय को सतिनिक, पेतिवामिक, हट्टिकिय, कन्यस्त (या अय्यभ्यस्त), श्वेताम्बरों से भिन्न सूचित करने के लिए दिगम्बराम्नायी कन्यासिका, पुष्यमित्रीय, नाडिक, मौहिक, नागभूतिय और के नाम से घोषित कर दिया।
परिधासिका के नाम उपलब्ध होते है । इनके अतिरिक्त इस समय श्वेताम्बर संघ के नायक वचस्वामि के दसवी-ग्यारहवी शती ई० के तीन मूर्तिलेखो मे से एक मे पट्टधर वज्रसेन थे जिनका निधन ६३ ई० मे हुआ। इन्ही
नवी 'भोधाय गच्छ' का और दो में (९८१ ई० और १०७७ प्राचार्य वनसेन ने नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति एव विद्याधर ई० के मे) श्वेताम्बर माथुर सघ का उल्लेख प्राप्त होता
है। १०२३ ई० मे एक प्रतिमा सर्वतोभद्रिका दिगम्बर १. दर्शनसार, भावसग्रह, भद्रबाहु चरित आदि में प्राम्नाय की भी यहाँ प्रतिष्ठित हुई थी, किन्तु उसमे निबद्ध दिगम्बर अनुश्रुति ।
किसी गण-गच्छ का उल्लेख नहीं है । 'भोधायगच्छ' का २. तपागच्छ पट्टावली, विशेषावश्यक भाष्य आदि मे श्वेताम्बर परम्परा के ८४ गच्छो अथवा दिगम्बरो के निबद्ध श्वेताम्बर, अनुश्रुति ।
अनेक सघ-गण-गच्छों में से किसी के साथ समीकरण