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अनेकन्त
फेरत भेष दिखावत कौतुक,
शेन कर चेतन प्रचेतनता नींद लिये, सौंजि लिये वरनादि पसारौ।
मोह की मरोर यहै लोरन को ढंपना ॥ मोह सों भिन्न जुदो जड़ सौं,
उदै बल जोर यह श्वास को शबद घोर, चिन्मूरति नाटक देखनहारो॥
विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सुपना। एक नट जब रगमंच पर अभिनय करता है, तो
ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहै तिहुँ काल, अभिनयोपयुक्त वेशभूपा और वातावरण मे अपने को भूल
पावै भ्रम-जाल में न पावे रूप अपना । जाता है। किन्तु नाटक की तन्मयता से उभरते ही वह 'नाटक समयसार' मे वीरग्म के अनेक चित्र है, अपने सच्चे रूप मे पा जाता है। उसे विदित हो जाता जिनमे से एक मे प्रास्रव और ज्ञान का युद्ध दिखाया गया है कि नाटकीय दशा मेरी वास्तविक अवस्था नही थी। है । कर्मों के आगमन को आस्रव कहते है। वह बहुत चेतन का भी यही हाल है। वह घट में बने रगमच पर बड़ा योद्धा है, अभिमानी है। ससार में स्थावर और अनेक विभावो को धारण करता है। विभाव का अर्थ है जगम के रूप में जितने भी जीव है, उनके बल को तोड कृत्रिम भाव । जब मुदृष्टि खोलकर वह अपने पद को फोडकर आम्रव ने अपने वश में कर रक्खा है। उमने देखता है, तो उसे अपनी असलियत का पता चल जाना मूछो पर ताव देकर रणस्तम्भ गाड दिया है। अर्थात् है। चेतन रूपी नट के इस कौतुक को देखिये
उसने अपने को अप्रतिद्वन्द्वी प्रमाणित करने के लिए अन्य ज्यों नट एक घरं बहु भेख,
योद्ध.प्रो को चुनौती दी है। अचानक उस स्थान पर कला प्रगट बहु कौतुक देखें।
ज्ञान नाम का एक सुभट, जो सवाये बल का था, या प्राप लखे अपनी करतति,
गया । उसने प्रावव को पछाड दिया, उसका रण-थभ बहै नट भिन्न विलोकत पखं ।
तोड दिया । ज्ञान के शौर्य को देखकर बनारसीदास नमत्यों घट में नट चेतन राव,
स्कार करते हैविभाउदसा घरि रूप विसेख।
जते जगवासी जीव थावर जंगम रूप, खोलि सुदृष्टि लख अपनो पद,
ते ते निज वस करि गखे बल तोरि के। दुद विगरि दसा नहि लेखे ॥
महा अभिमानी ऐसो पाखव प्रगाष जोधा,
रोपि रन थंभ ठाढ़ो भयो मंछ मोरिके। चेतन मूव है, वह अचेतन के धोखे मे मदेव फंमा
पायो तिहि थानक अचानक परम धाम, रहता है। अचेतन चेतन को या तो भटकाता है अथवा मोह की नीद में मुला देता है, अपना रूप नही देखने
ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फोरिके। देता । 'नाटक ममयसार' मे चेतन की मुपुप्तावस्था का एक
प्रास्रव पछार्यो रनथंभ तोरि डार्यो ताहि, चित्र अकित किया गया है। वह काया की चित्रमारी में
निरखि बनारसी नमत कर जोरिके॥ माया के द्वाग निर्मित मेज पर मो रहा है। उम सेज पर नाटक समयसार में भक्ति-तत्त्व कलपना (तडपन) की चादर बिछी है। मोह के झकोगे निकल और सकल अर्थात् निर्गुण और सगुण की से उसके नेत्र ढंक गये है। कर्मो का बलवान उदय ही उपासना का समन्वय जैन भक्ति की विशेषता है । कोई श्वास का शब्द है। विपय भोगो का प्रानन्द ही स्वप्न जैन कवि ऐसा नही जिमने दोनो की एक साथ भक्ति है। इस भाति चेतन मस्त होकर मो रहा है। वह मूढ- न की हो । जैन सिद्धान्त मे आत्मा और जितेन्द्र का एक दशा मे तीनो काल मस्त रहता है। भ्रम-जाल में फंमा ही रूप माना गया है, अतः वह शरीरी हो अथवा अशरीरी, रहता है। उससे कभी उभर नही पाना
जैन भक्त को दोनों ही पूज्य है। नाटक समयसार में काया चित्रसारी में करम परजंक भारी,
इस परम्पग का पालन किया गया है । कवि बनारसीदास माया को संवारी सेज चादर कलपना । ने यदि एक ओर निकल ब्रह्म की आराधना की है, तो