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अनेकान्त
यहाँ स्पष्ट है कि "ज्ञानवान नाना कार्यों को करता जैसा है। नाटक समयसार में यह पंचामृत भोजन पग-पग हुमा भी उनसे पृथक रहता है" नाम का दार्शनिक सिद्धान्त पर उपलब्ध है। "देह विनाशवान है, उसकी ऊपरी चमक सस्कृतकलश की अपेक्षा नाटक समयसार मे अधिक सजीव धोखा देती है" इस तथ्य पर बनी बनारसीदास की एक है। उसमे वह उपयुक्त शब्दो के चयन, पंक्तियो के गठन, अनुभूनि देखिएप्रसादगुण और दृष्टान्त मलकार की सहायता में भावक्षेत्र
रेत को सो गढ़ो किधौ मढ़ी है मसान के सी, का भी विषय सन सका है। मच तो यह है कि ममयमार और उसकी टीकाएँ दर्शन में सम्बन्धित है, जब कि
अन्दर अन्धरी जैसी कन्दरा है सैल की। बनारसीदास का 'नाटक समयसार' माहित्य का ग्रन्थ है।
ऊपर की चमक बमक पटभूखन की, उसमे कवि की भावुकता प्रमुख है जब कि समयसार में
धोखे लगे भली जैनी कली है कर्नल की। दार्शनिक का पाण्डित्य । दर्शन के रूखे सिद्धान्तो का
प्रौगुन को प्रोंडो महा भौड़ी मोह की कनौडी, भावोन्मेप वह ही कर सकता है, जिसने उन्हे पचाकर
माया की मसूरति है मूरति है मल की। प्रात्ममात् कर लिया हो । कवि बनारसीदाम ने अपनी
ऐसी देह याहि के सनेह याकी सगति सों, प्राध्यात्मक गोष्ठी मे समयसार का भलीभाति अध्ययन,
ह रही हमारी मति कोल के से बैल की। पारायण और मनन किया था। इसमें उन्होने अनेक वर्ष 'समयसार' की 'नाटक' सज्ञा खपा दिये थे। बीच मे गलत प्रथं समझने के कारण
__ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ममयसार को नाटक मज्ञा से उन्हे कुछ भ्रम हो गया था, जो पाण्डे रूपचन्द्र से गोम्मट
अभिहित नहीं किया था। सर्वप्रथम प्राचार्य अमतचन्द्र ने सार मुनकर दूर हो गया। पाण्डे रूपचन्द की ममूची
समयसार को नाटक कहा । किन्तु केवल कह देने मात्र से शिक्षा-दीक्षा बनाग्म में हुई थी। वे एक ख्याति प्राप्त विद्वान थे। मही प्रथं ममझने के उागन्त बनारसीदास ने
कोई ग्रन्थ नाटक नही बन जाता । उसमें तदनुरूप भावो
न्मेप की पावश्यकता बनी ही रहती है। प्रात्मख्याति अपने माथियो के माथ एक बन्द कोठरी मे नग्न मुनि
टीका मे भावोन्मय नहीं है। बनारसीदास की भावपरकता बनने का प्रयास समाप्त कर दिया और मनन में अधिक ममय व्यतीत करने लगे। परिणामबगान अर्थ अधिका
ने समयसार की 'नाटक' मज्ञा को सार्थक किया और इसी
कारण उनके ग्रन्थ का 'नाटक समयसार' नाम उपयुक्त । धिक स्पष्ट हो गया। किन्तु केवल अर्थ ज्ञान होना और बात है तथा उमकी अनुभूति दूमगे। अनुनि तभी हो सकती है जब कि अर्थ को समझा ही नहीं अपितु पचाया
उसमे सात तत्त्व-जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, संवर, भी गया हो । पचाने का अर्थ है उसका साक्षात् करना। निर्जरा और मोक्ष अभिनय करते है। इनमें प्रधान होने अर्थात् अनुभूति के लिए ज्ञाता ही नहीं, अपितु द्रष्टा होना के कारण जीव नायक है और अजीव प्रतिनायक । उनके भी पावश्यक है। बनारसोदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रतिस्पर्धी अभिनयो ने चित्रमयता को जन्म दिया है। समयसार की गाथाम्रो का अमृतचन्द्र की ग्रात्मख्यानि जीव को अजीव के कारण ही विविध रूपों मे नृत्य करना टीका के माध्यम गे मध्ययन किया, आध्यात्मिक गोष्ठी पड़ता है। प्रात्मा के स्वभाव और विभाव को नाटकीय में मनन किया और एकान्त मे साक्षात् किया। इस भाति ढग से उपस्थित करने के कारण इसको नाटक समयसार जाग्रत हुई अनुभूति ने नाटक समयसार को जन्म दिया। कहते हैं । यह एक प्राध्यात्मिक रूपक है। इसमे पात्मा बनारसीदास की दृष्टि मे सच्ची अनुभूति सच्चा ब्रह्म ही रूपी नर्तक सनारूपी रंगभूमि पर ज्ञान का स्वाग बना है। तज्जन्य प्रानन्द परमानन्द ही है। वह कामधेनु और कर नृत्य करता है। पूर्वबध का नाश उमको गायक विद्या चित्राबेलि के समान है। । उसका स्वाद पचामत भोजन है, नवीन बंध का संवर ताल तोड़ना है, नि शकित पाठ १. अनुभी की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अग उसके सहचारी है, समता का पालाप स्वगे का
अनुभौ को स्वाद पच अमृत को कोर है। उच्चारण है और निर्जरा की ध्वनि ध्यान का मृदंग है।