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'समयसार' माटक
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के अन्त में उनको कलिकाल सर्वज्ञ कहा गया है। चन्द्र- कर बनारसीदास को प्रात्मा के विषय में भ्रम हमा था। गिरि और विन्ध्यगिरि के शिलालेखो मे उनकी अत्यधिक इसका अर्थ यह हुआ कि प० गजमल जी समयसार का प्रशसा की गई है। समयसार अध्यात्म का मर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ सही अर्थ समझने में असमर्थ थे। समयसार एक कठिन है। अपने स्वभाव और गुण-पर्यायो में स्थिर रहने को ग्रन्थ है, बड़े बड़े पण्डित भी चकरा जाते है। प. 'समय' कहते है। ऐसा होने के कारण ही जैन मान्यता- राजमल ने भी कही कही भूल की हो तो प्राश्चर्य क्या नुसार छ. द्रव्य 'समय' मज्ञा मे अभिहित किये गये है । इनमे है । बनारसीदास के नाटक ममयमार पर उपर्युक्त तीनो भी प्रात्मद्रव्य ज्ञायक होने के कारण सारभूत है। उसका प्राचार्यों का प्रभाव है। मुख्यतया विवेचन करने से इम ग्रन्थ को समयमार करते
नाटक समयसार को मौलिकता है१ । इममे प्राकृतभाषा में लिखी गई ४१५ गाथाय है।
नाटक समयसार प्राचार्य प्रमतचद्र के मस्कृत कलशो इमका प्रकाशन बम्बई, बनारस और मारौठ ग्रादि कई
का अनुवाद भर ही नहीं, अपितु यथेष्ट रूप से मौलिक स्थानो से हो चुका है।
भी है। अमृतचद्र की आत्मच्याति टीका में केवल २७७
कलशे है, जबकि नाटक समयसार मे ७२७ पद्य हे। प्रत इन प्रावृत गाथामी पर प्राचार्य अमृनचन्द्र ने वि०
का १४वा 'गुणस्थान अधिकार' तो बिल्कुल स्वतत्र रूप से म० की हवी शती में 'प्रात्मख्याति' नाम की टीका मस्कृत
लिखा गया है। प्रारम्भ और प्रत के १०० पद्यो का भी कलशो मे लिखी । प्राचार्य अमनचन्द बहुत बडे टीकाकार
प्रात्मख्याति टीका से कोई सम्बध नही है। जिनका थे । उन्होने केवल ममयमार की ही नहीं, अपितु पचास्ति
सम्बध है वे भी नवीन है। उनमें कलश का अभिप्राय तो काय और तत्त्वमार की भी टीकार्य लिखी। टीका की
अवश्य लिखा गया है, किन्तु विविध दृष्टान्तो, उपमा और विशेषता है कि उसका मूल ग्रन्थ के साथ पूर्ण तादात्म्य
उन्प्रेक्षामों मे ऐमा रम उत्पन्न हुआ है, जिसके समक्ष होना चाहिए। ऐमा प्रतीत होता है जैसे कि अमृतचन्द्र ने
कलश फीका जंचता है। तुलना के लिये एक उदाहरण प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्रतिभा मे घुस कर ही टीका का
देखिएनिर्माण किया हो । प्राचार्य अमनचन्द्र विद्वान् थे और
नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यस्त्वं फलं विषयसेवनस्य ना । कवि भी, किन्तु प्रात्मख्यानि टीका, ममयमार पाहड़ का
जानबंभवविरागताबलात्मेवकोऽपि तदसोऽसेवक ॥ सच्चा प्रतिनिधत्त्व करती है, अत: उममे दार्शनिकता ही
अमनचद्राचार्य के इम मस्कृत कलग पर नाटक समयअधिक है, कवित्व कम । प्राचार्य अमतचन्द्र ने जिन अन्य
मार का हिदी पद्य इस प्रकार है-- ग्रन्थो का निर्माण किया है, वे भी दार्शनिक ही है।
जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, 'पुरुपार्थसिद्धय पाय उनकी मौलिक कृति है।
पकज कहा न बाके डिंग पंक है। वि० म० को १७वी शती में प० रायमल्ल ने 'ममय
जैसे मन्त्रवादी विषधर सो गहावे गात, मार' पर बालबोधिनी नाम की टीका लिग्वी, जो हिन्दी
मन्त्र की शकति बाके बिना विष उक है। गद्य मे थी। प० गयमल्ल की विद्वत्ता की ज्यानि चन
जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूख चंग, दिक व्याप्त थी। वे हिन्दी पौर मस्कृत दोनो ही के
पानी में कनक जैसे काई से अटक है। विद्वान थे। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षक और ममुन्नत था। विद्वत्ता के ममन्वय ने उसे और भी निग्वार दिया
तसे ज्ञानवान नाना भौति करतूत ठान था किन्तु अर्धकथानक मे लिखा है कि इस टीका को पढ
किरिया ते भिन्न माने यात निकलंक है१॥
१. बनारमीदाम नाटक ममयमार, हिन्दी ग्रन्थ १. प्राचार्य कुन्दकुन्द, ममयसार, दि. जैन ग्रन्थमाला, नाकर कार्यालय, बम्बई, ७।१५ पृ० १६७-६८ । इमी मारोठ (मारवाड़), फरवरी, १९५३ । दूसरी गाथा, के नीचे फुटन्गेट में प्रस्तचन्द्राचार्य का लोक दिया है। अमृचंतद्राचार्य की सस्वृत टीका, पृ. ८-६।
वही, उत्थानका, १६वां पद्य, पृ० १७ ।