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अनेकान्त
बोली की पुट दी है और इसे ही उन्होंने 'मध्य देस की किन्तु फिर भी अधिकांशरूप में 'प' का ही प्रयोग हुन बोली' कहा है, जिससे ज्ञात होता है कि यह मिश्रित है। विषधर, भेष, दोष, विशेष और पिऊष में ष तथा भाषा उस समय मध्य देस मे काफी प्रचलित हो चुकी पोख अभिलाख, विशेखिये में 'ख' देखा जाता है । थी१ । डा. माताप्रसाद गुप्त का कथन है 'यद्यपि मध्यदेस
अर्धकथानक मे 'ऋ' कही कही ही सुरक्षित रह पाया की सीमाएं बदलती रही है, पर प्राय सदैव ही खड़ी
है, किन्तु नाटक समयसार मे उसका कही पर भी स्वराबोली और ब्रजभाषी प्रान्तो को मध्यदेस के अन्तर्गत
देश नही हया है। वहाँ अधकथानक की भॉति दृष्टि को माना जाता है और प्रगट है कि अर्धकथानक की भाषा
दिष्टि नहीं किया गया है, अपितु 'दृष्टि' ही सुरक्षित है। मे व्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का किचित सम्मिश्रण
इसी भाँति कृपा, कृपाण, मषा प्रादि शब्द भी ऋकारान्त है। इसलिए लेखक का भाषा विषयक कथन सर्वथा सगत जान पडता है।" यह सत्य है कि अर्धकथानक में
सस्कृत के सयुक्त वर्णो को स्वरभक्ति या वर्णलोप के खडी बोली और ब्रजभाषा का समन्वय है। इस भांति
द्वारा प्रासान बनाने की प्रवृत्ति नाटक समयसार मे भी यह जनमाधारण की भाषा है। प० नाथूराम प्रेमी ने
पायी जाती है। जैसे-निहर्च (निश्चय), हिरदै (हृदय), 'बोली' को बोलचाल की भाषा कहा है। 'मध्यदेम' की ।
विवहार (व्यवहार), सुभाव (स्वभाव), शकति (शक्ति), बोली ही मध्यदेस की बोलचाल की भाषा थी।
सासत (शाश्वत), दुन्द (द्वन्द्व), जुगति (युक्ति), थिर बनारसीदास ने अर्धकथानक बोलचाल की भाषा मे (स्थिर), निरमल (निभल), मूरताक (मू
(स्थिर), निरमल (निर्भल), मूरतीक (मूर्तिक), सरूप लिखा, किन्तु उनके अन्य ग्रन्थ साहित्यिक भाषा मे है। (स्वरूप), मुकति (मुक्ति), अभिग्रन्तर (प्राभ्यन्तर), साहित्यिक का तात्पर्य यह नही है कि उसमे खडी बोली
अध्यातम (अध्यात्म), निरजरा (निर्जरा), विभचारिनी और व्रजभाषा निकल कर दूर जा पडी हो। रही दोनो (व्यभिचारिनी), रतन (रत्न) और प्राचारज (आचार्य), किन्तु संस्कृत निष्ठ हो जाने से उन्हे साहित्यिक की मज्ञा प्रादि । नाटक समयसार मे 'य' के स्थान पर पूर्णरूप से से अभिहित किया गया। प्रर्धकथानक मे प्रत्येक स्थान 'ज' का ही प्रयोग हुआ है, जैसे-जथा (यथा), जथारय पर 'श' को 'स' किया गया है, जैसे 'शुद्ध' को 'सुद्ध', (यथारथ), जथावत (यथावत), जोग (योग), विजोग 'वश' को 'वस' और 'पात्र' को 'पास' । किन्तु नाटक (वियोग) आदि । कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ 'य' का समयसार में अधिकाशतया श' का ही प्रयोग है, जैसे- प्रयोग हुप्रा हो । चेतना, अशुभ, शशि, विशेष, निशिवासर और शिवसता
तदभव परक प्रवृत्ति के होते हुए नाटक मे सस्कृतआदि । अर्धकथानक में 'प' स्थान पर 'स' का आदेश
निष्ठा को कोई व्याघात नही पहुंचा है। भले ही परपरदेखा जाता है, किन्तु नाटक ममयसार मे सब स्थानो पर
गति कर दिया गया हो, किन्तु शब्द तो सस्कृत का ही 'ष' का ही प्रयोग है । उस समय 'ष' का 'ख' उच्चारण
है। निर्मल को निरमल और निर्जरा को निरजरा कर होता था, अतः लिपि मे वह 'ख' लिखा हुआ मिलता है, देने से न तो वह 'चलताऊ' बना और न उर्दू-फारसी का।
इसके अतिरिक्त सस्कृत के तत्सम शब्दो का भी बहुत १ अर्धकथानक : संशोधित संस्करण, हिन्दी ग्रन्थ
अधिक प्रयोग हुआ है, जैसे-ज्ञानवन्त, कलावत, सम्यक्त्व रत्नाकर कार्यालय प्राइवेट लिमिटेड, बम्बई, भूमिका, .
मोक्ष, विचक्षण और निर्विकल्प आदि । अर्धकथानक मे अर्धकथानक की भाषा, डा. हीरालाल जैन लिखित,
उर्दू-फारसो के शब्द भरे पड़े है, किन्तु समूचे नाटक समयपृ० १६ ।
सार मै बदफैल और खुराफाती जैसे शब्द दो चार से २. अर्धकथा. हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय अधिक नही मिलेगे। बनारसीदास उर्दू-फारसी के अच्छे इलाहाबाद, डा० माताप्रसाद गुप्त लिखित, भूमिका, जानकार थे। उन्होने जौनपुर के नवाब के बड़े बेटे चीनी पृ० १४-१५।
किलिच को उर्दू-फारसी के माध्यम से ही सस्कृत पढ़ाई