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'समयसार' नाटक
थी। किन्तु नाटक समयसार का विषय ही ऐसा था, परकता को अभिवृद्ध किया है। बनारसीदास एक भक्त जिसके कारण वे फारसी के शब्दो का प्रयोग नहीं कर कवि थे। उनके काव्य मे भक्तिरस ही प्रमुख है। उनकी सके । बनारसीदास ने विषयानुकूल ही भाषा का प्रयोग भक्ति अलकारों की दासता न कर सकी, अपितु अलकार किया है। यह उनकी विशेषता थी।
ही भक्ति के चरणों पर सदैव अर्पित होते रहे। वे रस भाषा का सौन्दर्य उसके प्रवाह मे है, सस्कृत अथवा स्कूल के विद्यार्थी थे। रस प्रमुख रहा और अलंकार फारसी-निष्ठा मे नहीं । प्रवाह का पर्थ है भाव का गुम्फन गौण । शरीर की विनश्वरता दिखाने के लिए उत्प्रेक्षा के साथ अभिव्यक्तीकरण । नाटक समयसार के प्रत्येक के लालित्य के साथ रस का सौन्दर्य देखिये .पद्य मे भाव को सरसता के साथ गृथा गया है। कहीं
थोरे से धका के लगे ऐसे फट जाय मानो, विशृखलता नही है, लचरपन नही है । यह एक गुलदस्ते
कागद को पुरी किषों चावर है चल की। की भांति सुन्दर है । दृष्टान्तों की प्राकर्षक पंखुड़ियों ने उसके सौन्दर्य को और भी पुष्ट किया है। विचारों की
छन्दो पर तो बनारसीदास का एकाधिपत्य था। अनुभूति जब भावपरक होती है तो उसका प्रकट करना ।
उन्होंने नाटक समयमार मे मवैया, कवित्त, चौपाई, छप्पय, प्रासान नहीं है, किन्तु बनारसीदास ने महज में ही प्रकट
अडिल्ल, कुण्डलिया और दोहा-सोरठा का प्रयोग किया कर दी है। इसका कारण है उनका मध्मावलोकन । है । सर्वया तो वैसे भी एक रोचक छन्द है. किन्त बनारमी उन्हें बाह्य मसार और मानव की अन्त प्रकृति दोनो का
दाम के हाथो मे वह और भी अधिक सुन्दर बन गया है। मूक्ष्म-ज्ञान था। इसी कारण वे भावानकल दृष्टान्तो को दोहा-सोरठा के बाद उन्होने मबसे अधिक सवैया लिम्बे चनने और उन्हे प्रस्तुत करने में समर्थ हो मके । एक
और उनमे भी 'मवैया इकतीमा'। मवैया तेईसा भी है उदाहरण देखिए :
किन्तु कम । जैसे भैया भगवतीदास को कवित्तों का गजा जैसे निशिवासर कमल रहै पंकहि में,
कहते है, वैसे बनारसीदाम को सवैयो का। समुचे मध्यपंकज कहावं पं न वाके ढिंग पंक है।
कालीन हिन्दी साहित्य मे ऐसे सर्वये अन्य नही रच सके । जैसे मन्त्रवादी विषधर सों गहाव गात,
कहने का तात्पर्य यह है कि बनारसीदाम ने जैन मन्त्र को सकति वाके बिना विष इंक है ।।
ग्राध्यात्मिक विचारो का हृदय के साथ तादात्म्य किया जैसे जीभ गहै चिकनाई रहै रूखे अंग,
प्रथोत् उन्होंने जैन मन्त्रो को पढ़ा और समझा ही नही, पानी में कनक जैसे काई सों अटक है।
अपितु देखा भी। इसी कारण मन्त्रद्रष्टाग्रा की भांति वे तसे ज्ञानवन्त नाना भांति करतूति ठाने,
उन्हे चित्रवत् प्रकट करने में समर्थ हो सके । ऐसा करने किरिया को भिन्न मान याते निकलंक है।
में उनकी भाषा सम्बन्धी शक्ति भी सहायक बनी। वे दृष्टान्तों के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपकों शब्दो के उचित प्रयोग, वाक्यो के कोमल निर्माण और की छटा भी अवलोकनीय है। अनुप्रासो मे सहज मौन्दर्य अत्रकारो के स्वाभाविक प्रतिष्ठापन में निपुण थे। उनकी है। बनारसीदास को अलकारो के लिए प्रयास नही करना भाषा भावों की अनुवतिनी रही, यही कारण था कि वह पहा । वे स्वतः हो पाये है। उनको स्वाभाविकता ने रस- निर्गनिए मन्तो की भाँति अटपटी न बन सकी।