Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 232
________________ मगध धौर जन-संस्कृति लेकर अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप मे व्यतीत किया था। वह श्रुत- केवली भद्रबाहु की परम्परा का अनुयायी था और ई० पू० २६० के लगभग दक्षिण भारत मे कर्नाटक देश के श्रवणबेल गोला स्थान मे उसने समाधि मरणपूर्वक देहत्याग किया था। आचार्य हेमचन्द्र के परि शिष्ट पर्व के अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्त का महाराजनीतिज्ञ मन्त्री चाणक्य भी अपने जीवन के शेष दिनो में जैनधमं की शरण प्राया था। उसके अन्तिम दिनो का वर्णन इसी लिए हमे जैन शास्त्रों के अतिरिक्त कहीं नहीं मिलता। आगमों का संग्रह जैनागमो का सर्वप्रथम सकलन इसी मगध देश की राजधानी पाटलिपुत्र में प्राचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व मे हुआ था। उस सकलन की एक रोचक कहानी है । भगवान महावीर का जो उपदेश इस मगध की धरा पर हुआ था, वह उनके शिष्यों द्वारा १२ अग और १४ पूर्वो मे विभक्त किया गया था, जो श्रुत परम्परा से चल कर शिष्य-प्रशिष्यो द्वारा कालान्तर में विस्मृत होने लगा था। यह बात नन्द-मौर्य साम्राज्य के सक्रमण काल की है। इस समय तक बौद्धो ने अपने श्रागमो को राजगृह और वैशाली की दो समतियों द्वारा बहुत कुछ व्यवस्थित कर लिया था पर जैनों की ओर से कोई सामूहिक प्रयत्न नहीं हुआ था । नन्द-मौर्य राज्यतन्त्र के मक्रमण काल मे जैन सघ के प्रमुख आचार्य भद्रबाहु थे । हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व के एक उल्लेख से ज्ञात होता है कि उस समय मगध मे बारह वर्ष व्यापी भयकर दुर्भिक्ष पडा था । उस दुष्काल मे जब साधुग्रो को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था. तब साधु लोग निर्वाह के लिए समुद्र तट की ओर चले गए और उन्होंने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना की थी । दिगम्बर अनुश्रुति के अनुसार भद्रबाहु दक्षिण की ओर अपने संघ सहित चले गये थे। मगध में कुछ जैन मुनि प्राचार्य स्थूलभद्र की प्रमुखता में रह गये थे । भीषण दुर्भिक्ष के कारण मुनि संघ को अनेक विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं। अन्त में श्रागम ज्ञान की सुरक्षा के हेतु प्रा० स्थूलशद्र के नेतृत्व मे एक परिषद् का सगठन हुआ जिसमे श्रवशिष्ट आगमों का सकलन हुआ। भद्रबाहु के अनुगामी मुनिगण जब मगध २१५ लौटे, तो उन्होने सकलित आगमों की प्रामाणिकता पर सन्देह प्रकट किया और तत्कालीन साधु-संघ जो श्वेत वस्त्र का प्राग्रह करने लगा था, को मान्यता प्रदान नही की । इस तरह इस मगध की धरा पर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से जैन संघ के स्पष्ट दो भेद हो गये । यहाँ जो श्रागम सग्रह किया गया, उसे दो भागो में बाँटा गया - एक तो वे जो महावीर से श्रमण परम्परा मे प्रचलित थे, इसलिए उन्हें पूर्व कहा गया पौर महावीर के उपदेश को '१२ अग' नाम से सगृहीत किया गया । श्रागमों की भाषा '' का मगध देश की भाषा मागधी या मगही कहलाती है। इसका जैन श्रागमो की भाषा पर खासा प्रभाव है। जैनागमो की भाषा अर्धमागधी कही जाती है। अर्धमागधी का अर्थ उस भाषा से है, जो माधे मगध में बोली जाती थी अथवा जिसमे मागधी भाषा की प्राधी प्रवृत्तियाँ पाई जाती थी। हो सकता है कि मगध की भाषा को ही अधिक समुदाय के लिए बोधगम्य बनाने के हेतु उसमे पडौस के कोशल सूरगेन यादि प्रदेशों के प्रचलित शब्द शामिल कर लिये गये हो, भाषाविदो के अनुसार मागधी भाषा की मुख्यत तीन विशेषताएँ थी - ( १ ) उच्चारण 'ल' होना (२) तीनो प्रकार के ऊष्म 'शस, प' वर्णों के स्थान पर केवल तालाव्य 'श' पाया जाना, (३) अकारान्त कर्तृ कारक एक वचन का रूप 'श्री' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय होना । इन तीन मुख्य प्रवृत्तियों में अन्तिम प्रवृत्ति अर्धमागधी मे बहुलता से पाई जाती और र का ल होना कही कही पाया जाता है। इसकी शेष प्रवृत्तियाँ पौरनी प्राकृत से मिलती है, जिससे अनुमान होता है कि इसका रूपान्तर मगध के पश्चिम देशो में हुआ होगा । जो हो, जैनो ने पूर्वी भाषा ( मागधी ) का कुछ परिवर्तन संस्कार तो अवश्य किया पर बहुत हद तक वे उसे ही पकड़े रहे। उनके आगम जिस अव मागधी भाषा मे है, उसमें बौद्धागमो की भाषा पालि से मगध की भाषा के अधिकतत्त्व पाये जाते है। जैन, प्राकृतों के 'एयो, दुयों आदि धनेक शब्द मगध में बाज भी बोले जाते हैं। वर्तमान जैन आगमो में प्रमागधी भाषा के अनेक स्तर परिलक्षित होते है। उनमें श्राचा

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