Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 230
________________ मगध और जन-संस्कृति आस-पास की खुदाई से प्राप्त पकी मिट्री (टेसाक्टा) के यहाँ तक कि इस क्षेत्र मे प्राण-त्याग भी पाप गिनते हैखिलौनों से, जिनमें स्त्री, पुरुष, राक्षस और पशुमों के 'मगह मरे सो गदहा होय' । अाज भी मिथिला के ब्राह्मण चित्र हैं, मालम होता है कि इस क्षेत्र का सम्बन्ध मोहे- गगा पार मगध की भूमि मे मृत्यु के अवसर को टालते जो-दारो और हरप्पा आदि की प्राचीन संस्कृतियो से है। श्रोत-सूत्रों से यहां रहने वाले ब्राह्मण को ब्रह्म नन्धु अवश्य रहा है। पार्यों के प्रागमन के पहले के कुछ कहते है, जिसका अर्थ जातिमात्रोपेत ब्राह्मण है, शुद्ध अवैदिक तत्त्वो से मालूम होता है कि यहाँ पापाणयुगीन ब्राह्मण नही । आज कल भी यहाँ ब्राह्मण 'बाबाजी' नाम से पुरुषो के वशज रहते थे। यहीं कृष्णागों (नेगरिट) और पुकारे जाते है और किसी काम के बिगड जाने व किसी आग्नेयों (अस्टरिक) की संस्कृति का सम्मिश्रण हा वस्तु के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर उसे भी उपहास रूप था । पार्य और आर्येतर सस्कृतियों का प्रादान-प्रदान 'यह बाबाजी हो गया' कहते है । यद्यपि महावीर और विशेषत. इसी प्रान्त में हया था। पार्यो ने यहाँ के विद्वानों बुद्ध के उदय होने के काफी पहले से मगध मार्यों के से कर्मसिद्धात, पुनर्जन्म और योगाभ्यास की शिक्षा ली अधीन हो गया था, पर यहाँ पुरोहित वर्ग को वैसा और अपनी होम विधि के मुकाबले में उनकी पूजा विधि सम्मान कभी नही मिला, जैसा उसे प्राय देशों में मिला अपनाई। वेदों में यहां के निवासियों को व्रात्य नाग, है। वैदिक संस्कृति एक प्रकार से यहां के लिए विदेशी यक्ष प्रादि नामो से कहा गया है। ऋग्वेदादि ग्रन्थो मे थी, इसीलिए पीछे महावीर और बुद्ध के काल में, वहाँ व्रात्यों की निन्दा और स्तुति के अनेक प्रसग मिलते है। उसका जो थोडा-बहत प्रभाव था, वह भी उठ गया। अथर्ववेद के पन्द्रहवे काण्ड में व्रात्य शब्द का अर्थ और मात्य प्रजापति का सुन्दर वर्णन प्रायः श्रमण नामक मगध से जैनधर्म की प्राचीनता और विकास : ऋषभदेव को लक्ष्य कर कहा गया लगता है। वहाँ यह मगध से जहाँ तक जैनधर्म और सस्कृति का सम्बन्ध भी लिखा है कि व्रात्य की नारी श्रद्धा थी, 'मागध' है वह साहित्यिक प्राधारो पर भगवान् महावीर से पहले उनका मित्र था और विज्ञान उसके वस्त्र थे । यहाँ मगध- जाता है। - जाता है । बौद्ध ग्रथ दीघनिकाय के सामञ्जफल सूत्रों में मागधवासी शब्द इस प्रसंग मे ध्यान देने योग्य है। मगध भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के चातुयाम सवर बासियो के नेतृत्व में पूर्वीय जन समुदाय ने पार्यों की (अहिमा, सत्य, अस्तेय एव अपरिग्रह) का उल्लेख है। दासता से बचने के अनेक प्रयत्न किये थे। ब्राह्मण-सस्कृति उत्तगध्ययन के केशी गौतम सवाद में और भगवती-सूत्र के पुरातन ग्रन्थो मे श्रमण सस्कृति के अनुयायी मगधवासी में पापित्यो (पाश्वपरम्परा के मुनियो) के सम्वाद से एव पूर्वीय जनवर्ग तथा उनके भू भाग को बहुत ही हेयता मालूम होता है कि मगध में भगवान पार्श्वनाथ की और घृणा के भाव से देखा गया है। ऋग्वेद से लेकर शिक्षायो एव उनके समय के व्यवहागे का प्रचलन था। मनुस्मृति तक के अनेक ग्रन्थो मे इस बात के प्रमाण भरे भगवान् महावीर का ममकालीन प्राजीवक मक्खलि पड़े है । मागध (मगध-जनवासी) शब्द का अर्थ ब्राह्मण गोमाल अपने ममय के मनुष्य समाज के छह भेद करता कोपो मे चारण या भाट है। सभव है, जीविकानार्थ है, जिममे तीमग भेद 'निर्ग्रन्थ' ममाज था। इसमे विदित कुछ लोग मगध से चारण, भाटो का पेशा करते हए प्रार्य होता है कि निर्ग्रन्थ मगठन पहले गेही एक उल्लेखनीय मगदेशो में जाते हो, जहाँ उन्हे मगध शब्द से कहते-कहते टन रहा है। प्राचाराग मूत्र मे मालूम होता है कि भगपीछे उसी अर्थ मे मागध शब्द की रूढि हो गई हो। वान् महावीर के माता-पिता श्रमण भगवान् पार्श्व के मनुस्मृति मे गिनाए गये ब्रह्मपि देशो में मगध का नाम उपासक थे । इन तथा छान्य गवल प्रमाणों में सिद्ध है कि शामिल नहीं है। वहाँ मगध शब्द का अर्थ वर्ण मकर से मगध मे जैनधर्म भगवान महावीर मे बहुत पहले से था। है। इस क्षेत्र वासियों ने पुरोहितों और वैदिक देवतायो मगध की राजधानी राजगह गेनो के बीमवे तीर्थडुर की सर्वोच्च सत्ता प्राय न के बराबर स्वीकारी थी। मुनिमुव्रतनाथ के-गर्भ, जम्म, दीक्षा, केवलज्ञान-य इसलिए पुरोहित वर्ग इस क्षेत्र को अपवित्र मानते है और चार कल्याणक हुए थे।

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