Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 226
________________ 'समयसार' नाटक २०६ देती है। वह पद्य देखिए . उन्हें कोई प्रयास ही करना पड़ता। वे शरणागतों की कबहूँ सुमति कुमति को विनास करें, रक्षा करते हैं, शरणागत भले ही पापी हों। उन्हें मौत कबहूँ विमल ज्योति प्रन्तर जगति है। का डर नही सताता । वे धर्म की स्थापना और भ्रम कबहूँ क्या ह्व चित्त करत दयाल रूप, का खण्डन करते हैं। वे कर्मो से लडते है किन्तु विनम्र कबहूँ सुलालसा ह लोचन लगति है ॥ होकर, क्रोध और भावावेश के साथ नहीं। ऐसे मुनिराज कबहूँ प्रारती के प्रभु सनमुख प्राव, विश्व की शोभा बढ़ाते है बनारसीदास उनका दर्शन कर कबहूँ सुभारती व बाहरि बगति है। नमस्कार करते है। धरं दसा जैसी तब कर रीति सी ऐसी, भक्त पाराध्य की वाणी मे भी श्रद्धा करता है । हिरवे हमारे भगवन्त को भगति है। उसकी महिमा के गीत गाता है । जिनवाणी जिनेन्द्र के एक स्थान पर भक्त कवि ने जिनेन्द्र की मूर्ति अथवा हृदयरूपी तालाब से निकलती है और श्रुत-सिन्धु मे समा बिम्ब का विवेचन करते हुए लिखा है कि--उसे देखकर जाती है, अर्थात् वह एक सरिता के समान है। इस वाणी जिनेन्द्र की याद आती है। उनके गुणों को प्राप्त करने के द्वारा सत्य का वास्तविक रूप प्रगट हो जाता है । की चाहना उत्पन्न होती है । जिनेन्द्र में कुछ ऐसा सौन्दर्य सत्य अनन्त नयात्मक है । अनेक अपेक्षाकृत दृष्टियों से वह होता है, जिसके समक्ष इन्द्र का वैभव तुच्छ-सा प्रति विविध रूप है । उसका कोई एक लक्षण नहीं, एक रूप नही। उसे समझने के लिए भी सात्विकता से युक्त भासित होता है। उनके यश का गान हृदय के तमस को भगा कर प्रकाश मे भर देता है। अर्थात् जिनेन्द्र का सामर्थ्य चाहिए। अर्थात् सम्यग्दृष्टी ही उसे समझ सकता यशोगान एक मन्त्र की भांति है, जिसमें 'तमसो मा है, अन्य नहीं । बनारसीदास का कथन है कि वह जिनज्योतिर्गमय' की पूर्ण सामर्थ्य है। उससे बुद्धि की मलिनता वाणी सदा जयवन्त हो :-- तासु हृद-बह सौ शुद्धता में परिणत हो जाती है। इस भाति जिनेन्द्र बिम्ब निकसो, की छवि की महिमा स्पष्ट ही है१ ।। सरिता सम ह्र श्रुत-सिन्धु समानी। यात अनन्त नया तम लच्छन, बनारसीदास ने केवल निष्कल और सकल ब्रह्म की सत्य स्वरूप सिद्धन्त बखानी। ही नहीं, अपितु उन सब साधुग्रो की भी वन्दना की है, बुद्ध लख न लख दुरबुद्ध, जो सदगुणो से युक्त है। उन्होंने लिखा है कि मुनिराज ___सदा जगमाहि जग जिनवानी ॥ ज्ञान के प्रकाश के प्रतीक तो होते ही हैं, वे सहज सुख कवि बनारसीदास ने नवधा भक्ति का निरूपण सागर भी होते है। अर्थात् ज्ञान के उत्पन्न होते ही उन्हें थात् ज्ञान के उत्पन्न होते हा उन्हें किया है। उन्होंने लिखा है, "श्रवण, कीरतन, चितवन, परम सुख स्वत. ही उपलब्ध हो जाता है। उसके लिए सेवन, वेदन ध्यान । लघुता, समता, एकता नौधा भक्ति प्रवान ।" नाटक समयसार में इस नौधा भक्ति के उद्ध१. जाके मुख दरस सौ भगत के नैननि को, रण बिखरे हुए है। थिरता की बानि बढे चचलता बिनसी। नाटक समयसार को भाषा मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद प्रावै जहाँ, कवि बनारसीदास ने अपने अर्धकथानक की भाषा जाके प्रागै इन्द्र की विभूति दीमै तिनसी । को 'मध्य देस की बोली' कहा है। डा० हीरालाल जैन जाको जस जपत प्रकास जगै हिरदे मैं, ने उसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि-बनारसीदास सोइ सुद्धमति होइ हुती जु मलिन सी। जी ने अर्धकथानक की भाषा मे ब्रजभाषा की भूमिका कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, लेकर उस पर मुगलकाल मे बढ़ते हुए प्रभाव वाली खड़ी सोहै जिनकी छवि सुविद्यमान जिनसी॥ - -वही, १३१२, पृ० ४६१ १. वही, मंगलाचरण, प० ६ ।

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