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अनेकान्त
जैन प्राचार्यों ने पाम महारस मे डूबी प्रात्मा को की यह ही दशा होती है। उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा ब्रह्म कहा है। बनारसीदास ने भी उसे ब्रह्म कहा और सकता है। वे सशरीरी ब्रह्म है। प्राचार्य 'जोइन्दु' ने उसके स्याद्वादरूप का विवेचन किया। उन्होंने लिखा है उन्हे 'सकल ब्रह्म' की सज्ञा से अभिहित किया है । सूर कि वह एक भी है और अनेक भी, अर्थात् वह प्रात्म- और तुलसी ने ऐसे ब्रह्म को सगुण कहा है। बनारमीसत्ता मे एकरूप है और परमत्ता में अनेक रूप । वह ज्ञानी दास ने सकल ब्रह्म की भक्ति से भक्त का निर्भय होना है और अज्ञानी भी, अर्थात् शुद्ध रूप मे ज्ञानी और कर्म स्वीकार किया है । भगवान् पार्श्वप्रभु का शरीर सजलसंगति मे अज्ञानी है। इसी भाति वह प्रमादी है और जलद की भांति है। उनके शिर पर सप्तफणियों का अप्रमादी भी । वह जब अपने रूप को भूल जाता है तो मुकुट लगा है। उन्होने कमठ के अहकार को दल डाला प्रमादी और जब अनेप रूप को जाग्रत होकर स्मरण है। ऐसे जिनेन्द्र की भक्ति से भक्त के सब डर भाग जाते करता है तो अप्रमादी । अपेक्षाकृत दृष्टि से ही वस्तु का है। फिर तो वह यमराज से भी डरता नहीं। भगवान् वास्तविक निरूपण हो सकता है, अन्यथा नही। इस दृष्टि उमके पापो को हरण कर लेता है, इतना ही नही उमे को ही स्याद्वाद कहते है। यह सिद्धान्त प्रात्मा पर भी भव-समुद्र से भी पार लगा देता है । वह भगवान् कामघटित होता है। प्रात्मा का ऐसा निष्पक्ष और सत्य देव को भस्म करने के लिए रुद्र के समान है। भक्त जन विवेचन अन्यत्र दुर्लभ ही है । बनारमीदाम ने उम प्रात्म- मदैव उसकी जै जै के गीत गाते है। जिनेन्द्र की भक्ति ब्रह्म की प्रशसा की है :
की सामर्थ्य का बग्वान करते हुए लिग्या है कि जिनेन्द्र की देख सखी यह ब्रह्म विराजित,
भक्ति कभी तो मुबुद्धि रूप होकर कुमति का हरण करती याको दसा सब याही को सोहै। है, कभी निर्मल ज्योति बन कर हृदय के अन्धकार को एक मैं अनेक अनेक में एक,
दूर भगाती है, कभी कणा होकर कठोर हृदयो को भी बुंदु लिये दुविधामह दो हैं।
दयालु बना देती है, कभी स्वय प्रभु की लालसा कप
होकर अन्य नेत्रो को भी तप कर देती है। कभी प्रारती पाप संभारि लख अपनौ पद,
का रूप धारण कर भगवान के सन्मुख पाती है और पापु विसारि के प्रापहि मोहै।
मधुर भावो को अभिव्यक्त करती है। कहने का तात्पर्य व्यापक रूप यह घट अन्तर,
यह है कि भक्ति भक्त को प्रभु की तद्रूपता का प्रानन्द ग्यान मै कौन अग्यान मै को है। -
१. मदन-कदन-जित बनामीदाम ने 'सकलब्रह्म' के भी गीत गाये । सकल
परम-धरमहित,
सुमिरत भगति भगति सब डरसी । ब्रह्म वह है, जो केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी प्राय
मजल-जलद-तन मुकुट कर्म के प्रवशिष्ट रहने में विश्व में शरीर महिन मौजूद
सपत-फन,
कमठ-दलन जिन नमत बनारसी ॥ रहता है। अर्थात् उमके घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है, प्रत उसकी प्रात्मा में ब्रह्मत्व तो जन्म ले ही नेता है,
. वही, मगलाचरण, पृ०२॥ किन्तु आयु के क्षीण होने तक उसे ससार मे रुकना
२. पर अघ-रजहर जलद, पड़ता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त अर्हन्त
सकल जन-तन भव-भय-हर । मन्यामी महज योगी जोग मो उदासी जामे,
जमदलन नरकपद-छयकरन, प्रकृति पचामी लगि रही जरि छारसी ।
अगम प्रतट भव जल तरन । सोहै घट मन्दिर मैं चेतन प्रगट रूप,
वर-सकल-मदन-वन-हरदहन, ऐमो जिनराज ताहि बन्दत बनारसी ॥
जय जय परम अभय करन । -नाटक समयसार, बम्बई, ११२६, पृ०५६।
-वही, मंगलाचरण, पृ. ३ ।