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अनेकान्त
सांप मरे न लाठी टूटे।
है। भाव, भाषा और शैली में यह अन्यन्त स्फीत तथा इस प्रकार अनेक स्थलों पर सुभापित तथा कहावते प्रसाद गुणोपेन काव्य है। प्राय' सभी रसो की मयोजना मिलती है, जिससे भाषा और भावों मे सजीवता लक्षित इस काव्य मे हुई है। परन्तु मुख्य रूप से विप्रलम्भ होती है । सक्षेप मे, काव्य-कला की दृष्टि से विलासवनी. शृङ्गार की अभिव्यजना परिलक्षित होती है। कथा अपभ्रश के प्रेमाख्यानक काव्यो में उत्कृष्ट रचना
'समयसार' नाटक
डा० प्रेमसागर जैन
कवि बनारसीदास ने 'नाटक समयमार' की रचना मिले है । माझा और मोहविवेक युद्ध भी नवीन है। इन की थी। वे अपने युग के प्रख्यात माहित्यकार थे। यद्यपि सब कृतियो में अध्यात्म या भक्ति ही प्रमुख है । बनारसीउनका जन्म एक व्यापारी कुल मे हया था१"किन्तु वे अपने दास ने एक प्रात्मचरित भी लिखा था जो समूचे मध्यभावाकूल अन्त मानस को क्या करते, सदैव कविता के रूप कालीन साहित्य का एकमात्र प्रात्मचरित्र है। हिन्दी जगत में प्रस्फुटित रहने के लिये बेचैन रहता था। उन्होने १५ मे उसकी पर्याप्त प्रशसा हुई है। बनारसीदास ने ही वर्ष की आयु मे ही एक नवरस रचना लिख डाली, जिममे उसका नाम 'प्रधकथानक' रखा था। इसका बम्बई और एक हजार दोहे-चौपाइया थी। इस रचना में भले ही प्रयाग से प्रकाशन हो चुका है। 'मासिखी का विसेस वरनन' था, किन्तु काव्य-कला की बनारमीदास की सर्वोत्कृष्ट कृति 'नाटक समयमार' दृष्टि से वह एक उत्तम कोटि का काव्य था। एक दिन है। उसकी रचना प्रागरे मे वि० स० १६६३, पाश्विन जब बनारसी ने उस कृति को गौतमी में बहा दिया, तो सुदी १३, रविवार के दिन पूर्ण हुई थी। उस समय मित्र हा हा करते हुए घर लौटे । बनारसीदास की दूसरी बादशाह शाहजहाँ का राज्य था। इस कृति में ३१० कृति है नाममाला । एक छोटा-सा शब्दकोश है। इसमे सोरठा-दोहा, २४५ सवैया इकतीमा, ८६ चौगाई, ३७ १७५ दोहे है । उसका मुख्य आधार धनञ्जय की नाम- तेईमा सवैया, २० छप्पय, ७ अडिल्ल और ४ कुडियाँ माला है। किन्तु इनमे केवल सस्कृत का ही नही. अपितु है। समूचे भक्ति-युग में प्राध्यात्मिक भक्ति का निदर्शन प्राकृत और हिन्दी का भी समावेश है, अत. यह एक ऐमी अन्य रचना नहीं है। मौलिक रचना है। ऐसा सरस शब्दकोश अन्य नही है। नाटक समयसार का पूर्वाधार प्रागरा के दीवान जगजीवन ने वि० स० १७०१ मे
'नाटक समयसार' का मूलाधार था प्राचार्य कुन्दबनारसीदास की बिखरी ६५ मक्तक रचनायो को एक कुन्द का समयसार पाहुड़। प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम ग्रन्थ के रूप मे सकलित किया था और उसका नाम सवत् को पहली शती मे हुए है। उनके रचे हए तीन ग्रन्थ रक्खा था 'बनारसी विलास ।' प्रब बनारसीदास की कुछ समय
समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय अत्यधिक प्रसिद्ध अन्य रचनाये भी प्राप्त हुई है, जो 'बनारसी बिलास' मे
है। जैन परम्परा में प्राचार्य कुन्दकुन्द भगवान् की भांति संकलित नही है। कुछ पद जयपुर के शास्त्र-भडारो मे हापू
को ही पूजे जाते है। श्री देवसेन ने वि० सं०६९० में अपने
दर्शनसार नाम के ग्रन्थ मे लिखा है कि यदि कुन्दकुन्दा१. इनके पिता का नाम खडगसेन था, वे हीरा- चार्य ने ज्ञान न दिया होता तो पागे के मुनि जन सम्यक जवाहरात का व्यापार करते थे : अर्धकथानक ।
पथ को भूल जाते । श्रुतसागरसूरि कृत षट्प्राभूत की टीका