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कविवर भाऊ की काव्य साधना
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० पी० एच०डी० [ प्रस्तुत निबन्ध के पहले पैराग्राफ से ऐसा बिक्षित हुमा कि लेखक कवि भाऊ का निश्चित रचना काल बताने । जा रहा है किन्तु द्वितीय पैराग्राफ का अन्तिम वाक्य लिपिकाल ही बता कर मौन हो गया। जिस कवि ने प्रपनी किसी रचता में निर्माण-काल का सकेत तक न किया हो, उसको प्राचीन-से-प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के प्राधार पर केवल अनुमान ही करना पड़ता है। यदि डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल भाऊ का निश्चित रचना काल खोज सके तो हिन्दी पाठक उनके ऋणी रहेंगे।
मुनि कान्तिसागर ने 'भाऊ' को 'मादित्य-कथा' की प्राचीन प्रति सं० १७२० को लिखी हुईखोजी थी ग. कासलीवाल को त १६२६ को लिखी हुई मिली है और मैने भाऊ को अन्य कति 'नेमिनाथरास' को स १६६६ बाली प्रति का उल्लेख अपने अन्य 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में किया है। तीनों ही उनके रचना काल मापने के पैमाने हैं। निश्चित समय नहीं है।
कवि 'भाऊ' की 'मादित्यवार कथा' और 'नेमिनाथ रास' में दूसरी रचना ही साहित्यिक है, पहली की लोकप्रियता जन-समाज में रवि-व्रत के अधिक प्रचलन के कारण यो। मेरी दृष्टि में 'भाऊ' ऐसे कवि नही थे कि उनकी . रचनाओं को 'काव्य-साधना का नाम दिया जा सके।
-प्रेमसागर जन ]
हिन्दी जैन कवियों में भाऊ कवि का नाम विशेपत मेंमगृहीत मिलती है अब तक उपलब्ध प्रतियों में जयपुर उल्लम्वनीय है। कवि हिन्दी के प्रच्छ विद्वान थे प्रोर के पाश्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संवत् १६२६ काव्य रचना में रूचि रसते थे। उन्होने अपने जीवन में की प्रति सबसे प्राचीन है । जो एक गुटके मे सगृहीत है कितनी कृतिया लिखी इसकी निश्चित जानकारी अभी और जिसकी लिपि पामेर मे हुई थी। यदि इस प्रति तक प्राप्त नहीं हो सकी है। अब तक कवि की दो रच- को कवि के समय का प्राधार मान लिया जावे तो कवि नायें एवं एक पद उपलब्ध हुना। इन कृतियों में काव न का समय १६ वी शताब्दी अथवा इमसे भी पूर्व का हो उनके रचना काल का उल्लेख नहीं किया और न किसी सकता है। समकालीन एव परवर्ती विद्वान ने कवि के सम्बन्ध मे परिचय-कवि अग्रवाल श्रावक थे। गर्ग उनका कुछ लिखा है इस लिये कवि के काल के सम्बन्ध में गोत्र था। उनकी माता का नाम कुवरी तथा पिता का कितनी ही धारणाये है । प्रभी नागरी प्रचारिणी पत्रिका नाम मलूक था । कवि न अपनी ये सभी रचनाये व्यपार वर्ष ६७ प्रक ४ मे मुनि कान्तिसागर जी ने भाउ के सम्ब- व्यवसाग करते हुये लिखी थी। त्रिभुवनगिरि इनका न्ध मे दो स्थान पर अपने विचार लिखे है। पत्रिका के निवास स्थान था जिसका उल्लेख मादित्यवार कथा पत्र ३०६पर कवि को १८ वीं शताब्दी का माना गया है मे निम्नप्रकार है : . पौर पृष्ठ ३३३ पर कवि के समय के सम्बन्ध मे कोई
अग्रवालि यह कीयो बखाण, निश्चित मत नही लिखा गया । इसी तरह डा. प्रेम
कुवरी जननि तिहुवरण गिरि थान । सागर जी ने अपनी नवीन कृति 'हिन्दी जैन भवित काव्य ___ गहि गोत मलुको पूत, पौर कवि' मे कवि के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं
भाउ कवित जन भगति सजत ॥१५॥ किया और प्रतियो के लेखन काल को गिना कर उनके
प्राविस्यवार कया-यह कवि की सबसे लोकप्रिय
रचना है जिसके पठन पाठन एव स्वाध्याय का किसी समय का अनुमान करने का काम पाठको पर छोड़ दिया कवि की सबसे प्रसिद्ध कृति 'प्रादित्य वार कथा है।
समय प्रत्यधिक प्रचार था। एक प्रति मे इसका दूसरा राजस्थान में वह अत्यधिक लोकप्रिय रचना रही है इस नाम पाश्र्वनाथ कया भी मिलता है। रचना में रविवार लिए उसकी सैकड़ों प्रतिया राजस्थान के जैन शास्त्र के व्रत का महारभ्य दिया हुमा है। रविवार पार्वनाय भण्डारों मे उपलब्ध होती है। अधिकाश प्रतियां गुटकों का दिन है इसलिये उस दिन विधिपूर्वक व्रत करने से