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अनेकान्त
“के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रमुख स्थान रखता था वह माज कारण प्राज समाज विश्वलित है। उसकी भाषाज का क्रमशः पिछड़ता जा रहा है, इसके कारणो की गहराई मे माज कोई प्रभाव नहीं है। हम चाहे तेरहपंथी हों अथवा प्रवेश करने की क्या हमने कभी कोशिश की है ? स्थानकवासी या मन्दिर मार्गी, श्वेताम्बर हों या दिगम्बर शायद इमके दो प्रमुख कारण हैं। पहला संगठन का
सम्प्रदाय-गत संकीर्ण भावनामों को त्याग कर एकता के प्रभाव और दूसरा समाज की इकाइयों तथा परिवार दृढ़ पाश में पावर हा मोर एक जैन समाज के रूप में एक व्यक्ति की प्रतिभा, प्राधिक क्षमता में क्रमशः ह्रास ।
सोचे और कार्य करे -जैन समाज अस्तिस्व कायम रखना जैन ममान को यदि फिर से देश का अग्रणी समाज चाहता है तो इसके अतिरिक्त और दूसग मागं नही बनना है, तो उसके लिए उसे अपने सगठन एवं अपनी है। इकाइयों की शक्ति को दृत करना होगा और उन्हे वन- परिवनित परिस्थितियों में सोचने, विचारने और मान वातावरण के अनुकूल मोडना होगा।
कार्य करने के तौर-तरीफ भी बदले हैं और भीनता से हमारे देश में गणतान्त्रिक प्रणाली का उदय हो रहा बदलने रहंगे । समाज को एकता के सूत्र में प्रावत कर है। गणतान्त्रिक प्रणाली मे व्यक्ति का नही, समुदाय का एवं उपमे सगठन की भावना जपत करने के लि! महत्त्व होता है। व्यक्ति कितना ही गुणशाली एव बडा समाज के प्रगुणो और कण धारो को नये कार्यक्रम ग्रहण हो, जब तक उसके पीछे मुमगठित जन-समुदाय को करने होगे। बदली परिस्थितियों में केवल पञ्च शक्ति नही होती तब तक उसका महत्व नहीं होता । गण- कल्याणक पूजन एवं व्यापाणमालामों के पायो मन मात्र तान्त्रिक मागन प्रणाली के उदय की इम बता में जो से ही अपक्षित एकता का प्राविर्भाव नही होगा । मामाममाज या समुदाय शिथिल रहेगा, प्रकर्मण्य रहेगा और जिक सगठन एवं प्रगति के लिये हमें मध्यात्मिक क्षेत्र अपने सामूहिक मधिकागे के प्रति सजग और जागरूक नही के बाहर भी व्यापक कार्यक्रम बनाने होंगे। ' रहेगा, वह अपना महत्व खो देगा। उस समाज की कोई स्वतन्त्रता की उगलन के बाद हमारे देश में जनप्रतिष्ठा नही रहेगी। यही बात हमारे जैन ममाज पर भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नपी उपल-पल मवी है। लागू है।
प्रत्येक समान मांग बढ़ने के लिए हाथ पर फैला रहा जैन समाज एकत्र होकर, एक घर में महावीर है। लेकिन यह माधन सम्पन्न जैन-पमात्र ही है, जिसमें जयन्ती एव निर्वाण दिवस" पर मार्वजनिक सुट्टी के लिए प्राज अजीव निर्जीवता छायी हुई है। स्वतन्त्रता के इन प्रावाज बुलन्द करे और इसके लिए सुमगठिन प्रयाम करे १५-१६ चर्चा के बाद भी हमारे ममाके मेतामों एव तो फिर इस मांग को ठुकराना किसी के वश की बात नही सामाजिक सस्या प्रो के सामने समाज का वास्तविक चित्र रह जायेगी। मरकार को समाज की मामूहिक मांग पर नही है । और न इगके लिए उनके पास समय ही प्रतीत झुकने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
होता है। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब हममे समाज के समाज के प्रतीत की गुणगरिमा के बखान मात्र में ही एकाकरण की भावना का उदय हो। वर्तमान युग में जन- वर्तमान पीढ़ी के कर्णधारों पोर नेतामों का अधिकाश शक्ति और सगठन का बहुत बड़ा महत्व है। जैन-समाज समय व्यतीत हो जाता है । ममान एवं पाज के नाएक तो अन्य समाजों की तुलना में माकार में यो हो युवकों के सामने क्या क्या समस्याएं है और उनका छोटा है, तिम पर भी, इस समय फिरकापरस्ती का निराकरण कैसे हो सकता है, उसके प्रति हम उदासीन शिकार है।
होते है । न तो सामूहिक रूप से चितन, मनन एक समाज के विभिन्न फिरके अपनी अलग-अलग डफली विचार विमर्श की कोई व्यवस्था है और न उसकी कोई बजा रहे हैं और अलग-अलग राग अलाप रहे हैं, जिसके जरूरत ही महमूस की जाती है।