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साहित्य-समीक्षा
ऋषभदेव, भरत और बाहुबली से सम्बन्धित घटनाओं का इतिवृत्त है. किन्तु उनके निरूपण में इतिवृत्तात्मकता नहीं है भावुक स्थलों पर लेखक भी भावुक हो उठा है। इससे इतिहास की लता का परिहार हुआ है। इसे पढ़तेपढ़ते पाठक विभोर हो उठेगा और उपन्यास जैसा प्रानन्द प्रायगा । ज्ञान और प्रमाण का विवेचन ऐसे सहज तथा विशद रूप में प्रस्तुत किया गया है कि साधारण जन भी प्रासानी से समझ जाता है। इससे मुनिजी का विषय के साथ तादात्म्य स्पष्ट ही है । विवव पर विकार हो, शैली बोधगम्य हो और भाषा में सरलता एवं प्रवाह हो तो दार्शनिक विवेचन कभी भी उबा देने वाला नहीं हो सकता। इस ग्रन्थ का कोई स्थल ऐसा नहीं, जिसे पढ़कर पाठक थकान का अनुभव करे । मुनिजी ने जैनदर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन किया है । दूसरी भोर उनका अनुभूति परक दिल wear है । ग्रन्थ का अभिनन्दन होगा, ऐसा मुझे विश्वास है ।
अन्त में पाँव परिशिष्ट हैं-टिप्पड़ियाँ, जैनागमसूक्त, जैनागम परिमाण, जैनदार्शनिक प्रौर उनकी कृतियां तथा पारिभाषिक शब्दकोष इन्हें पढ़कर ही विद्वान समझ सकेंगे कि वे कितने उपादेय और उपयोगी है।
सम्बोधि रचयिता - मुनि श्री नथमल जी, अनुवादक मुनि मीठालाल, प्रकाशक - सेठ चांदमल बांठिया ट्रस्ट, पार्श्वनाथ जैन लायब्र ेरी, जयपुर, पृष्ठ- १७६, वि० सं० २०१८ ।
इस पुस्तक में १६ अध्याय और ३४४ श्लोक है। श्लोकों की रचना मुनि श्री नथमल जी ने की है। संस्कृत मासान है। प्रारम्भिक ज्ञान रखने वाला भी समझ सकता है। उनका हिन्दी अनुवाद मुनि मीठालाल जी ने किया है। वह मूल के अनुरूप ही है।
पुस्तक का प्रारम्भ एक प्रसिद्ध कथानक से हुआ है। महाराजा श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार ने भगवान महावीर से दीक्षा ले ली। राजपुत्र दीक्षित साधु बन गया । किन्तु पहली रात मुश्किल से बीती । भूमि कठोर थी, वहां निय साधु अधिक थे और वह मार्ग में सो रहा था, जिससे माने जाने वाले साधुओं की ठोकरें लगती थीं रात शत-शत प्रहरों को लिए बीती । प्रातः वह भगवान् के पास गया, दीक्षा समाप्त करने का मन लिए । भगवान् ने सम्बोधा । भगवान् की वाणी अनेक प्रागम ग्रन्थों में संगृहीत है। उनका सार मुनिओ ने लिया । कवि विषय कहीं से ले; किन्तु उसके भाव अनुभाव भी उसमें भूमि बिना नहीं रह सकते। जाने-अनजाने उनका स्वर बज ही उठता है। वाणी भगवान की है। मुनि ने जिस श्रद्धाभाव से उसे अभिव्यक्त किया है वह उनका घपना है। मुनि का पुण्य बड़ा तो पाठकों का भी विकसित हो सकता है। इसी दृष्टि से पुस्तक की उपादेयता सिद्ध है। हम स्वागत करते हैं । डा० प्रेमसागर जैन
[१०] १८० गति से होने वाले परिवर्तनों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक रहने की प्रावयश्कता अनुभव की जाती है। क्योंकि मवाधरूप से होने वाले इस परिवर्तनों के प्रति ओ समाज या सम्प्रदाय उदासीन रहेगा, वह सदैव के लिए
पिछड़ जायेगा ।
परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल समाज को मोड़कर ही सामाजिक जीवन को मुखरित एवं समुन्नत बनाया जा सकता है, जिसका लाभ भावी पीढ़ी को भी पहुँचेगा । इस दृष्टि से, जैन समाज के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों शाखा प्रशाखार्थी संगठनों, परिवारों एवं व्यक्तियों को परिवर्तित वातावरण के प्रति पूर्णरूप से जाग्रत रखना एवं नव निर्माण के लिए प्रेरित करना समय की एक बड़ी और मपरिहार्यं प्रावश्यकता है। मतएव, देश के
का शेष ]
विभिन्न भागों में बसे हुए जैन समाज का सांख्यिक पद्धति द्वारा सामाजिक सर्वेक्षण नितान्त प्रावश्यक है। इस सर्वेक्षण द्वारा जहाँ जैन भाई बहनों की संख्या का सकलन होगा, वहां उनकी वित्तीय, शैक्षणिक, सामाजिक
एवं रोजगार की स्थिति का भी जीवित विवरण
उपलब्ध होगा ।
समाज के प्रति हमारे नेताओंों के कर्तव्यपालन का मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि हमने कितने मंदिरों का निर्माण कराया, कितने सभा सम्मेलनों की अध्यक्षता की, कितने सामूहिक भोजों का प्रायोजन किया। समाज के प्रति वर्तमान नेताओं के कर्तव्यपालन को खरी कसोटी तो यह होगी कि उन्होंने बदलती हुई स्थितियों का सामना करने के लिए किस सीमा तक समाज को तैयार किया।