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साहित्य-समीक्षा
फूल और अंगारे, लेखक मुनि श्री नवमल जी, प्रकाशक-सेठ चांदमल जी बांठिया दृस्ट, पाश्र्वनाथ जैन
लायरी, जयपुर १०, ८३, मूल्य ३ १०, वि० स०-२०१७ । इम अल्पकाय पुस्तक में मुनि जी की ६१ कवितामों का संकलन है। वे वि.स २००४ से २०१६ के मध्य ममय-समय पर लिखी गई हैं। मुनिजी एक माने जाने मातिप्राप्त विद्वान् है । दर्शन और शोध में उनकी महज गति है। वही उनका मुख्य विषय है। मैंने देखा है कि दर्शन की मूश्म परतो मे घंपता दार्शनिक कवि बन जाता है और कविता की अनुभूतियों में रमता कवि दार्शनिक हो उठता है। मेरी दृष्टि मे 'दर्शन' कारा चिन्तन नही है। उसकी तह में पडी 'दृश्' धातु भावोन्मेष के बिना साधक को दृश्य नहीं बनने देती । इसी कारण जैनाचार्यों ने 'दर्शन' का प्रर्थ 'श्रद्धान' लिया है। उसका भावना से सीधा सम्बन्ध है । तो मुनि जी का 'दर्शन' जब उमड़ा, कविता के रूप में बह पड़ा । 'दर्शन' का यह भावपरक प्रवाह जैन परम्परा के अनुरूप ही है । अनेक जैन कवियो ने 'दर्शन' को भावनामों को थपकियों में महेजा है मुनिजी ने मानव जीवन के इस महत्र सत्य को कि उसमें कठोरता, कोमलता दाहकता शीतलता तथा स्थूलता और सूक्ष्मता का समन्वय होता है, महज भाव-भीनी भाषा में अभिव्यक्त किया है। उनकी यह कृति मानवदर्शन को सहन अभिव्यक्ति है। 'निधिकला' के माधक की यह कल्पना पाठक को निर्विकल्प' मे लीन कर देती है, कोई इसे पाश्चर्य माने, मैं तो सहज स्वाभाविक ही कहता हूँ।
मुनि जी की विशेषता है-मरलता और उन्मुक्तता। वह उनकी ममूची कवितामों में झलकती है, चाहे बात गारों की हो या कठोरता की। अभी तक नो उन पर किसी 'वाद' का प्रभाव नहीं है । वे काव्यशास्त्र की, रूढियों की पौर वादों के घेरों की बन्दिशो में बंधने वाले जीव नहीं हैं। दूसरी पोर अग्रेजी कविता के अनुकरण पर हिन्दी मे लय और विदेशी भावनाप्रों के महारे नवीनता को डीग भी उन्होने नहीं हाकी है। उनके विचार मूक्ष्म और मौलिक हैं। उन्हें सहज बोध अभिव्यक्ति देने में भी वे अकेले हैं। प्राधुनिक हिन्दी काग को उनकी यह देन अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कृति में उनकी प्रत्येक कविता वन की लहलहाती टहनी-सी खूबसूरत है। 'पीड और विहग' की कतिपय पंक्तिया देखिए
रंग क्या वह आह मिश्रित, अश्र कण से धुल न जाए। ग्रन्थि क्या वह प्रेमके प्राघात, से जो खुल न जाए। अश्रु बन मिलते रहो तुम धार बन चलता रहूँगा। विजय क्या वह हार की, अनुभूति ले जो मुड न जाए? हृदय क्या यह वेदना के, तार से जो जुड़ न जाए।
नीड़ बन मिलते रहो तुम, विहग बन पलता रहूँगा ॥ जैन वर्शन के मौलिक तत्व, प्रथम भाग, लेखक-मुनि श्री नथमल जी, प्रबन्ध सम्पादक-छगनलाल शास्त्री, प्रकाशक-मोतीलाल बेंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट, ११४ मी. खगेन्द्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कलकत्ता-२, प्रबन्धक-- पादर्भ साहित्य संघ चूक (राजस्थान), पृष्ठ संख्या-५४६, मूल्य-१०००।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'जैन दर्शन के मौलिक तत्व' का पहला भाग है । इसमें पाँच खण्ड हैं-जैन संस्कृति का प्रागऐतिहासिक काल, ऐतिहासिक काल, जैन साहित्य, जैन धर्म का समाज पर प्रभाव तथा संघ व्यवस्था पौर चर्या । इन खण्डों में ३१ अध्याय है। अन्य में प्राचार्य तुलमी विरचित 'जैन सिद्धान्त दीपिका' और 'भिक्ष न्याय कणिका'का तार है और कुछ विषय प्रतिरिक्त भी हैं। मुनि जी ने पहले और दूसरे खण्ड को हृदयहारी बना दिया है। इनमें