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अनेकान्त
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जहाँ तत्त्वों की जानकारी है। दूसरी दशा सात वें से उपरोक्त भाव पर से ही द्रव्यसग्रहकार ने यह गाथा बारहवा गुणस्थान जहां प्रात्मा का संवेदन है और रची हैतीसरी दशा तेरहवा चौदहवां गुणस्थान जहाँ इसकी ससयविमोह विभमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। पूर्ण प्रत्यक्ष प्रात्म-दशा है । व्यवहार निश्चय की अपेक्षा गहण सम्मण्णाण सायारमरण्यभेय तु ॥४२॥
द्रव्य संग्रह दो ही दशा हैं। चौथे से बारहवें तक व्यवहार सम्य
अर्थ-अपनी शुद्ध मात्मा के स्वरूप का और पर ज्ञान और तेरहवें चौदहवे में निश्चय सन्यज्ञान ।
के स्वरूप का सशय विपर्यय मोर अनध्यवसाय रहित प्रत्यक्ष परोक्ष की अपेक्षा तीन दशा हैं। चौथे पाचवे म
प्राकार सहित (भेद सहित) जानना मम्यग्ज्ञान है पोर छठे मे परोक्ष ही है। तेरहवे चौदहवे में प्रत्यक्ष ही है। वह सम्यग्ज्ञान अनेक भेद बाला है। और सातवे से बारहवे तक कथचित प्रत्यक्ष पौर भावार्थ-माकार कहकर इमे दर्शनोपयोग से भिन्न कथचित परोक्ष हैं । यह मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान किया है और 'अनेक भेद' कहकर चौथे से बारहवें गुणका कथन है।
स्थान में श्र तज्ञान को क्षायोपशमिक ज्ञान होने के कारण, अध्यात्म मे सबसे पहली विचारणीय बात यह है जो अनेक तरतम रूप शुद्धि के भेद है उनका संकेत किया कि अनादि मिथ्यादृष्टि को इस त सम्यग्ज्ञान की है। क्वल श्रतज्ञान क प्रवान्तर शुदि क भदा का बा प्राप्ति केसे हो? इसका उत्तर यह है कि जो जीव भव्य सिद्धान्त दृष्टि के भेद प्रभेदों से यहा क छ प्रयोजन नहीं पवेन्द्रिय सज्ञी हो और काल ग्रादि लब्धियां जिगकी है और यह अनेक भेद की बात वे वलज्ञान मे नही है ऐसा पक गई हों, उस का काम बनता है ऐसा कछ वस्तु भी इससे प्रगट किया है। जैसे 'माकार' लिम्बकर इसे नियम है । वस्तु की मर्यादा ही ऐसी है। इसमें अपने निराकार दर्शन से भिन्न किया है ऐसे ही 'अनेक भेद' वम की बात नही है। हां ऐसा समय मा जाने पर इस लिखकर अभेदरूप केवलज्ञान से भिन्न किया है । जीव को क्या पुरुषार्थ करना पड़ता है जिससे इसका
इस श्रुत ज्ञान का ऐसा कुछ अनादि का विकृत रूप मिथ्याज्ञान सम्यग्यान हो जाता है वह है स्व-पर का "भेव है कि इसमें संशय, विपर्यय और मनध्यवसाय ये तीन विज्ञान' जो श्रीदक प्राचार्य महाराज ने सम्यग्जान दोष रहा करते है। सोस्व के स्वरूप की जानकारी में के इस लक्षण में अकित किया है।
पौर पर के स्वरूप की जानकारी मे इतना परिश्रम करना सम्यग्ज्ञान का लक्षण (चौथे से बारहवें गुणस्थान
होगा कि ये दोप बिलकुल न रहें । ठोक बजाकर पक्का
निर्णय हो । प्रचल, प्रकम्प, अडोल जिसको संसार की तक का)
कोई ताकत इधर उधर न कर सके। हिला भी न मके। अधिगमभावोणाण हेयोपादेयतच्चाण १५२।।
तब श्रुतज्ञान सम्यक श्रु तज्ञान नाम पाता है। संगयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥५॥ प्रब विचारना यह है कि वह स्व पर क्या वस्तु है
नियमसार
जिसका भेदशान करना है वह स्त्र वस्तु है निज शुद्ध अर्थ-हेय (पर) और उपादेय (स्व) तत्वों के
मात्मा जो कि ममूर्तिक है और सिद्ध समान है और शेष जानने रूप भाव सम्यग्ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञान संशय
सब कुछ पर है । उस प्रात्मा को मात्र केवलज्ञान ने जाना विमोह पौर विभ्रम रहित होता है।
है। प्रत; सर्वप्रथम सर्वज्ञ देव जिन भगवान की श्रया
करनी होगी और फिर उसके कहे हुए मागम की। वह भावार्थ-अपना निज शुद्ध पात्मा (शायक-अन्स
मागम सर्वथा सर्वज के वचनानुसार लिखा प्रा होना स्तत्व) उपादेय है भोर शष सब कुछ (बहिस्तत्त्व) हेय चाहिए । इसलिये ममक्ष को अनेक प्रप्रामाणिक प्रागों है। इस प्रकार संशय विपर्यय, अनभ्यवसाय रहित को छोड़कर सच्चे प्रामाणिक मागम को ढूंढना होगा। निस्सन्देह निश्चित रूप से जानना सभ्यग्ज्ञान है। सर्वज्ञका कहा हुमा पनेकान्तरूप पूर्वापर दोषों