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मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान का निरूपण
सरना राम जैन, बड़ोत
जान का कार्य पदार्य को जानना है जैसे दीपक का है="निज 'शुद्ध प्रात्मा में स्थिरता ।" यह अतज्ञान कार्य प्रकाश करना है।
क्षायोपशमिक ज्ञान है । शायक का वास्तविक रूप नही ज्ञान कुल पांच होते है मति, क्षत, अवधि, मनःपर्यय है। इसलिये इसकी बारहवें गुण तक व्यवहार सम्य. पौर केवल । जिनमे मति, अवधिः, मनःपर्यय तो मोक्ष ज्ञान संज्ञा है। सातवें से बारहवें गुणस्थान के सम्य. मार्ग में कोई खास प्रयोजन भूत है नही । श्रतज्ञान, ज्ञान का फल केवलज्ञान है, क्योंकि बारहवें के अन्त में जब मिथ्यात्व का प्रभाव हो जाता है तब सम्यग्ज्ञान इसका व्यय होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। हो जाता है। उस समय से मोक्षमार्ग का प्रग बन जाता 'माये परोक्षम्' इस सूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान है और जीव का गुणस्थान चौया हो जाता है । चौये, परोक्ष ही होता है। वस्तु स्थिति से यह परोक्ष ज्ञान पांचवें, छटवें मे जिस जीव के गुणस्थानानुमार जितनी ही है पर द्रव्यानुयोग तथा अध्यात्म की ऐपी कुछ शैली काय का प्रभाव हुआ है उतना तो अन्तरग मे शुद्ध है है कि सातवेंसे बारहवें तक इसको प्रत्यक्ष संज्ञा भी है। जो हर समय संवर निर्जरा का कार्य करता है और कुछ इसके लिये प्रागम में हेतु यह दिया है कि यहां मुनि को ब्रश शुभ राग द्वारा द्वादशाग के सूत्रो के विचार मे प्रात्मा का कोई प्रलौकिक सवेदन होता है और वह प्रयुक्त होता है क्योकि इन तीन (चौथे पांचवे छठे) इतना परमानन्द रूप है कि उस समय होने वाली किसी गुणस्थानों में शुद्धि के साथ शुभ राग भी है अर्थात् परोषह तथा उपसर्ग का भी वेदन नहीं होने देता। बद्धिपूर्वक शुभ विकल्प है। इसलिये इसके प्रखण्ड इसलिये इस सातवें से बारहवें गुगस्थान तक के थत. परिणमन को व्यवहार सम्यग्ज्ञान ही कहते हैं । इसमें शान को वस्तु मर्यादा के अनुसार तो परोक्ष ही कहा जितने प्रश मे शद्धता है उतने प्रश मे सवर निर्जरा है जाता है पर प्रारमानुभव की अपेक्षा प्रत्यक्ष भी कहते और जितने प्रश में राग है उतने प्रश में पुष्पबन्ध है। हैं। यह हमने पागम प्रमाण से लिखा है। हमको स्वयं
सातवा गुणस्थान जब पाता है उस समय उम इसका कोई अनुभव नहीं है क्योंकि हम तो धत सम्यग्ज्ञान की दशा एक दम पलट जाती है। सूत्रो सम्यग्दृष्टा है। इस पात्मानुभव मे इतनी ताकत है कि
यह दृढ़बद्ध धातिकमों को जड़ मूल से नष्ट कर देता है का बुटिपूर्वक विचार बिलकुल समाप्त हो जाता है और
और केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय हो जाता है यहाँ जीव सम्पूर्ण प्रयोग निज शुद्ध प्रात्मा का प्राश्रय करके उसमे
का मोक्ष इसलिये नहीं हो पाता कि श्रु तज्ञान मे प्रघाति अडोल, प्रकम्प एवं स्थिर हो जाता है । प्रबुद्धिपूर्वक
कर्म को नष्ट करने को सामर्थ्य ही नहीं है। वह सामथ्र्य कुछ राग रहता है अवश्य, पर वह कोई खास गिनती में
केवलज्ञान में है। नहीं है, क्योंकि उसकी सामध्यं इतनी हीन हो गई है
केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही गुणस्थान तेरहवां बन कि वह अगले भव की देवायु का बन्ध नहीं कर सकता
जाता है। ज्ञान परोश से पूर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है और पौर बिना बंध के प्रगला जन्म कैसे हो सकता है?
व्यवहार सम्यग्ज्ञान से निश्चय सम्यग्ज्ञान बन जाता है। नहीं होता। इसलिये वहाँ से वह श्रु तज्ञान वीतराग
इसका फल प्रघाति कर्मों का नाश करके सिद्ध पद की गिना जाता है और उसका फल केवलज्ञान माना जाता
प्राप्ति कराना है। है। सातवें से बारहवें गुणस्थान तक इसकी शुद्धि के उपरोक्त लेख को सार यह है कि सम्यग्ज्ञान की उत्तम मश बढ़ते ही रहते हैं पर, दशा इसकी एक ही तीन दशा है। पहली दशा चौथा पांचवां छठा गुणस्थान