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और तिलक पर
लुहान कर दिया, वह चीख कर भाग खडी हुई। दिखाई दिये। उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। वह
पाचग्दना नावह सेठ की दासी है। जी तोह अपने को धन्य मानने लगी। काम करती है। सेठ उसे बेटी की तरह दुलारता है
पर यह क्या ? महावीर लौट पड़े। इम गरीबनी 'पषिक काम न कर बेटी और चन्दना पिता तुल्य सेठ
का प्रातिष्य स्वीकार नहीं किया ? उसकी मांगों पर की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझती है।
माई और दो प्रांसू दुलक पड़े। सेठपका-मांदा बाहर से लौटा है। चन्दना गर्म
तीन पानी लाकर उसके पांवों को पो रही है । उसके लम्बे २
महावीर ने धमकर देखा । उसका अभिग्रह-चित्र जी
तब तक अधूरा था, मासुमों की माता कोमलता पाकर बास धरती को रहे हैं। सेठ वात्सल्य भाव से उन्हे
पूरा हो गया। वे वापिस लोट पड़े। चन्दना के राजे उठाकर उसकी पीठ पर रख रहा है।
पघरो पर मुस्कराहट फैल गई। उन्होंने उसव के अचानक चन्दना का हाथ सिर पर गपा-लम्बे २
बाकलों की भिक्षा ली। साभिग्रह छमासी पूरा हमा। बाल वहां न थे। उसे याद आया
माकाश में 'महो दान, ग्रहो दान' की दुन्दुभि बज उठी। 'ममी तीन दिन ही हुये, सेठानी मूला ने बदला लेने
चन्दना पारम-विभोर हो गई। उसकी प्रसन्नता का की भावना से उसे कोठरी में बन्द कर रखा है। उसके पारावार उमड़ पड़ा, वह प्रारमा के विभ्रत कुंज में इतनी लम्बे २ बाल कतर डाले हैं, उसके सिर मे घाव कर तन्मय होकर नाची, कि सृष्टि का कण २ उसके साप दिया है हाथ में हथकड़ियां पौर परो मे बेडियां डाल नाच उठा । उसकी बेडियो फूलमाला बन गई। मुटित दी। वह तीन दिन से भूखी है ।' अनायास ही उसकी मस्तक पर नागिन मी वेणी लहरा उठी। रत्नमटित दृष्टि अपने हाथों की ओर गई। उसने देखा
प्राभूषणों से शरीर जगमगा उठा। उबाले हुए सड़द के बाकले हायो मे है। वह सोच पर चन्दना ने यह सब कब चाहा पा? उमने जो ही रही थी कि किसी पतिथि का स्वागत कर इन्हे चाहा था वह उसे महावीर के चरणों में मिला। वह सार्क । इतने में उसे भगवान महावीर सामने प्राते हुए छब्बीस हजार साध्वियों को प्रवत्तिनी बनी।
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(पृ० १७४ का शेष) के अतिरिक्त मोर कोई परिचय नही दिया है । गम मे
चलण सीस धरि बारम्बार,
तिरिण कि मत्ति तिरी भव पार॥६॥ कवि ने सरस्वती बन्दना के समय अपने नाम का उल्लेख ,
अन्तिम भाग--और तिर प्रापुरण तिर, किया है -
चह सघ जिराण रक्षा करो। सरस्वती माता बुद्धि दाता करह पन्तकु लेई
पशु पंखी दीन्हा मुकलाय, उर पहिरि हार करि सिगार हस चढी वर देई ।।७।।
चढि गिरनार कियौ तपुजाइ ॥१४४॥ सेवत सुरनर नवहि मुनिवर छहों दरिसग तोहि।
सुर नर वन्दनीकु जो भयो, कवि जपउ भाउ करि पभाउ बुद्धि फलू मोहि ।
सोश्री नेमिसभा को गयौ । १५६॥ रचना का प्रावि पन्त भाग निम्न प्रकार है
भाउ कवि का एक पद जयपुर के पाटोदी मन्दिर भारम्भ-प्रथम तीर्थकर परण: चौबोस,
के गास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । पर"बलि जायोमिसब जिरिणन्द अपि लेउ जमीस । जिनंद की" से प्रारम्म होता है। पद स्तुति परक है।