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शोध-कण
परमानन्द न शास्त्री
भनेकान्त वर्ष १६ किरण ४ मे शोषटिप्पण के अन्त- हो या एक ने दूसरे का मनुकरण किया हो। र्गत पंचास्तिकाय को 'एक महत्वपूर्ण प्रति' नामक एक डा० विद्याधर जोहरापुरकर की यह कल्पना ता टिप्पण डा. विद्याधर जोहरापुरकर का लिखा हुप्रा प्रका- और भी विचित्र जान पडनी है कि पहले इनका नाम शित हुपा है । जिसमें पंचास्तिकाय के टीकाकार जयमेन जपमेन होगा बाद में ब्रह्म देव हो गया हो। पर पौर ब्रह्म देव (व्यसग्रह-दीकाकर्ता) दोनों विद्वानो को इम का क्या प्रमाण है। उसका कोई उल्लेख नही किया। अभिन्न बतलाने का प्रयास किया है। ब्रह्मदेव को मं० बहादेव कोई उपनाम नहीं है और न आधि सूचक ही १४६८ मे पहले का विद्वान घोपित किया है। इस पर है, किन्तु ब्रह्मदेश प्रीब्रह्म देवी नामों का उल्लेख मिलता विचार करना ही इम शोध-कण का विषय है। पचास्तिकाय ग्रन्थ का मटीक प्रकाशन रायचन्द्र शा
एक ब्रह्म देव मूलमंघ सूरस्थगण के विद्वान थे। उन्हें स्त्रमाला मे जिम हस्तलिखित प्रति पर से हरा था वह
भानुकीनि मिद्धान्ताव के गृहस्य शिष्य कलूकणि-नार सं०१३६६ की लिखी हुई थी १। उसमे ब्रह्म देव का समय
के शामक मामन्त-मे वय नायक ने हेवदि ठाडि मे म. १४६८ मे ही नही किन्तु उसमें एक शताब्दी पूर्व
एक ऊंचा चैत्यालय बनवाया और पावनिन की स्थापना सं० १३६१ मे भी पूर्ववर्ती है। इसमें उक्त मंत्रन वानी
कर पूज्य-वा, मन्दिर मरम्मत और पाहार दान प्रादि. प्रति को कोई महत्ता नही रह जाती, क्योंकि पवानि.
के लिये उक्त ब्रह्मदेव को पाद प्रक्षालन पूर्वक 'मरूहनकाय टीका के प्रारम में टीकाकार जमेन ने स्वय अन्यत्र तिमी
हल्लि' नाम का गाव दान मे दिया था। शिलालेख का मोमवेष्ठि निमित्त द्रव्यमंग्रहादी' २ वात्य दिया हुमा कालक मंवत १०६४ (वि. मं० ११९९) है।
इम से इनना कहा जा माता है कि टीकाकार जयमेन ब्रह्मदेवी का उल्लेव बधेरा के प्रति लेखों में पाया जाता बहादेव द्वारा मोमश्रेष्ठी के लिये रची गई द्रव्य संग्रह है। जिमने मं० १२४५ मे जिन मूनि की प्रतिष्ठा कराई पकाने परिचित थे। इसी मे उन्होने नगका उल्लेख किया थी। इन उल्लेखों में स्पष्ट है कि ब्रह्मदेव पौरब्रह्मदेवी है। किन्तु उससे दोनों विद्वानों की भिन्नता का गम्बन्ध नाम प्रामाणिक हैं, जयमेन मे ब्रह्मदेव हो गया हो ऐसा नही जोडा जा सकता, क्योकि शोधटिप्पण म डा० नही है। यदि ऐसा हुप्रा है तो उसका मप्रमाण उल्लेख जोहरापुरकर ने दोनों की एकता के माधक कोई प्रबल करना चाहिये, केवल कल्पना मे यह समय नहीं है। प्रमाण या युक्ति बल उपस्थित नही किया । मात्र कथन- द्रव्य मंग्रह के कर्ता नमिचन्द्र और ब्रह्मदेव दोनों सम शैली या टोका सरणि का अध्यात्म होने के कारण साम्य मामयिक है । इसकी पुष्टि द्रव्य सग्रह के टीकाकार ब्रह्महोना ही अभिन्नता का द्यातक नही है । दोनो ही टीका- देव की टीका के निम्न उत्यानिका वाक्य में स्पष्ट है:कारो के ग्रन्थों की प्रामाणिक जाच करने पर परस्पर छ "प्रथ मालन पेश धारानामनगरविनिराजा-भोज विशेषता अवश्य दृष्टि गोचर होगी। हो सकता है कि एक देवाभिधान-कलिकाल चक्रवर्ती-मम्बन्धिन : श्रीपाल-महाही टीकाकार को दूसरे को टोका देखने का अवसर मिला मण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्री मुनिसुव्रत-' १-वि० नवत् १३६६ वराश्विन शाद्ध. १ भौमदिने।
तीर्थकर-चैत्यालये शुद्धान्मद्रव्य-मवित्ति-ममुत्पन्न मुस्खा पना० टी० पृ० २२५
मृतरमा-म्वाद-विपरीत-नारकादि दुःवभयभीतस्य पर२-पंचास्तिकाय टीका रामचन्द्र शास्त्रमाला पृ०६ ३-देखो, जैनशिलालेख स. भा०३०४२