________________
देवताओं का गढ़ : देवगढ़
श्री नीरज जैन, सतना
प्राज से तीस वर्ष पूर्व मेरे पिता जी ने बुन्देलखंड दिल्ली बम्बई रेल मार्ग पर ललितपुर एक प्रमुख की तीर्थ बन्दना की थी। तब मैं केवल माठ वर्ष का था स्टेशन है' यह एक अच्छा व्यापारिक केन्द्र है और उत्तर परन्तु बेलगाडियों पर लम्बे समय तक घूमते रहने के प्रदेश झांसी जिले का एक प्रमुख स्थान भी है। पही से कारण उस यात्रा की अनेक धुघली परन्तु ममिट स्म- एक पक्की सड़क देव गढ़ तक जाती है जिस पर प्रतिदिन तियां पाज भी मेरे मस्तिष्क मे सुरक्षित है। देव गढ़ की मोटर बस चलती है, ललितपुर से देवगढ़ के बल १८ मील याद उन सब मे प्रमुख है जहाँ मूर्तियो के बम्बार लगे ये है। क्षेत्र पर एक चौगान मे धर्मशाला तथा चैत्यालय है और एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक जाने के लिए मोर इसी के दो कमरों में कुछ महत्व की मूतियों को मूर्तियों के टुकड़ों पर से ही होकर जाना पड़ता था। एकत्र करके एक छोटे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है। जब तक श्रद्धालु यात्रियों ने दर्शन पूजन का पुण्य लूटा, यहाँ एक शिलालेख है जिस पर मट्ठारह भावानों का तब तक हम प्रज्ञान बालकों ने कलात्मक मूर्ति खण्डों का प्रकन है तथा जिसे "शान शिला" कहा गया है। यही एक छोटा ढेर ही एकत्र कर लिया था।
छत्यालय मे एक उपदेश देते हुए प्राचार्य को उत्तिष्ठ इस यात्रा के बाद देवगढ़ में गजरथ की बात सुनी, पदमासन मूर्ति है जिस पर शिला लेख भी है। जीर्णोद्धार के समाचार पढ़े, डाकूमों से प्रातक की खबरे
धर्मशाला से लगभग पौनमील की दूरी पर विन्ध्य सुनी और अंत मे दो तीन वर्ष पूर्व सुना कि देवगढ़ की .
की शाखा एक सुन्दर पहाड़ी है और उसको अपनी लपेट अनेक महत्वपूर्ण सुन्दर मूर्तियों का सिर काट कर कुछेक
मे लेती हुई बेतवा नदी एक अद्भुत सुन्दरता का सृजन नराधम पाधुनिक मूति-भंजक तस्करों ने च गेज खो
करती हुई प्रवाहित हो रही है । इसी पहाड़ी पर देवगढ़ मौर औरंगजेब को भी मात कर दिया है, पर देवगढ़
के प्रति प्राचीन मन्दिरों और ध्वंसावशेषों के रूप मे जैन दर्शन का सुयोग केवल इसी माह मिल सका।
देवगढ़ की मूर्ति कला समय की अपेक्षा उत्तर गुप्त पुरातत्व का प्रपार भण्डार हमारी उपेक्षा और काल की काल से लेकर १८ वी शताब्दी तक की मजिलो से गुजरी कठारता पर हसता मुसकराता हुप्रा पड़ा है। एक बरं
M परकोटे के अन्दर छोटे बड़े कुल ३१ जिनालय पौर जिनसे भारत मे जैन वास्तु शिल्प के क्रमिक विकास मोर अनेक मानस्तम्भ भी यहाँ दर्शनीय हैं ही: साथीकार नागरी लिपि के विकास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। के सहारे तथा मन्दिरों के पीछे सैकडों नही हजारों मति जैन शामन देवतामों का भी जितना वैविध्य-पूर्ण पोर खण्ड अभी भी उपेक्षित पड़े हुए हैं । जब जमीन के ऊपर सांगोपांग पंकन देवगढ़ में पाया जाता है उतना अन्यत्र की यह दशा है तब देवगढ़ के भूगर्भ में हमारी जो बहुत कम देखा गया है। यहां मकित कला की इन निधियो छिपी पड़ी हैं उनकी वर्षा करने को तो ऐसा विधामों का विश्लेषण एक छोटे से लेख में कर सकना मान लेना चाहिए कि-मभी समय ही नहीं पाया है। संभव नही है इस लिए इस विषय पर अलग से लिखने इस परकोटे के बीचों बीच सबसे विशाल मन्दिर का प्रयास मैंने प्रारम्भ किया है । यहां तो इस महत्व पूर्ण (मंदिर न. १२) स्थित है जिसकी कलात्मक मिति. क्षेत्र की साधारण जानकारी कराना ही मेरा अभीष्ट उत्तंग शिखर पौर विशालता देखते ही बनती है।
इसी मंदिर की पाझ भित्ति पर चौबीसों तीपंकरों की