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भारतीय दर्शन की तीन धाराएं
१६५ मानता है । 'प्रात्मा' और परमात्मा में कोई भेद सर्वथा भिन्न मानता है :नहीं है, ऐसा शंकराचार्य ने स्वीकार किया है। एतच्च सुगतसेष्टम भावी नरात्म्यकीर्तनात् ।
सर्वतीर्थकृतां तस्मात् स्थितो मूनि तपागतः ॥ संक्षेप में अद्वैत वेदान्त आत्मा को परिवर्तन रहित
टी० एस० ३३४० एवं स्वप्रकाश चैतन्य स्वरूप मानता है।
इस परम्परा के अनुसार वस्तु मों में कोई निवि. सांख्य दर्शन यद्यपि इतनी दूर तो नहीं जाता,
कार तथा निर्विकल्प नाम का प्रान्तरिक तत्व परन्तु फिर भी मात्मा की स्थिरता एव शाश्वतता को
नही है । परन्तु प्रत्येक वस्तु प्रवाह समान है । बौद्धों स्वीकार करता है। सांख्य मे प्रात्मा के स्थान पर
के लिए अस्तित्व क्षणिक स्वलक्षण तथा धर्मपात्र है। पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया है। न्याय तथा
यह नश्वर तथा अमूर्त रूप है। अत: यहाँ प्रात्मा वैशेषिक प्रात्मा के सत्य स्वरूप का प्रतिपादन करते
की शाश्वतता को भ्रान्तिजनक माना गया है जो कि हैं। उनके अनुसार प्रात्मा अद्वितोय है । वे प्रात्मा
अविद्या के कारण मिथ्या विचारो की उत्पत्ति है। तथा उसके गुणों को समान रूप देते है। ये परम्प- इसे केवल रूप विषयक सत्यता कहा जा सकता है। राएं प्रात्मा के अस्तित्व को केवल स्वीकार ही
इस प्रकार से बौद्ध अपने ज्ञानशास्त्र तथा प्राचार नही करतों, बल्कि इच्छा, अनिच्छा सुख-दु.ख आदि शास्त्र के साथ अध्यात्मविद्या का साम्य स्थापित को प्रात्मा के हो गुण मानती है। इनके अनुसार करते हैं। यही नही अनुमान, अनुभव तथा मानसिक प्रात्मा शाश्वत तथा विनाशहीन है। यह 'विभु' रचना का विकल्प भी प्रात्मा की अस्थिरता पर मानो गई है, क्योकि समय अथवा देश आदि का अाधारित है। यहाँ तक कि इस सिद्धान्त का कर्म इस पर प्रभाव नहीं पड़ता है। दोनों परभराग्रा के तया पुर्नजन्म के सिद्धान्त के साथ भो समन्वय प्रध्यात्म शास्त्र ज्ञानशास्त्र तथा प्राचारशास्त्र का एक स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। अविद्या जो
केन्द्र है-पात्मा । ज्ञानशास्त्र म अात्मा हा कि समस्त दुःखों का मूल कारण है. प्रात्मा में मिथ्या अनुभव का ऐक्य तथा पूर्णता स्थापित करती है।
।ह। विश्वास है। ज्ञान का अर्थ है- इस मिथ्या विश्वास ये परम्पराएं दमरो विचार-पद्धतियों की अपेक्षा, का हट जाना तथा इससे उत्पन्न बुराइयों का सर्वथा अनुमान, स्मृति तथा वैयक्तिक साम्य का अच्छी
छा, उन्मूलन । तरह से विवेचन करती हैं । यहाँ बन्ध, प्रात्मा का
प्रस्तुत विचार पद्धतियाँ ब्राह्मण तथा बौद्ध मिथ्याज्ञान माना गया है अथवा यू' कह सकते हैं
दोनों, एक दूसरे का विरोध करती है । जहाँ ब्राह्मण कि अनात्मा का प्रात्मा के साथ साम्य हो गया है।
परम्परा प्रात्मा की नित्यता को स्वीकार करती है, 'प्रात्मन्यनात्मा ध्यासे' इसके विपरीत मोक्ष प्रात्मा
वहाँ बौद्ध परम्परा केवल प्रात्मा ही नहीं परन्तु तथा अनात्मा का स्पष्टीकरण है। अत: यह स्पष्ट
दसरे तत्वों को भी शून्य मानती है। बौद्ध प्रात्मा है कि ये सब परम्पराए' प्रात्मा को मुख्यता देती
की स्थिति को कुछ एक विचार शृखला को रूप में हैं। इन परम्पराओं का मूल प्राधार उपनिषद्
षद् हो स्वीकार करते हैं। विचार पद्धति है जहाँ प्रात्मा को ही परमात्मा माना गया है।
तोसरी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक परम्परा है 'जन' दूसरी परम्परा बौद्धों की है जिसमें प्रात्मा जहां ब्राह्मण परम्परा तथा बौद्ध एक दूसरे का विरोध तथा इससे सम्बन्धित अन्य तत्त्वों के अस्तित्व को करती हैं, वहाँ जैन दोनों के विरोध का समन्वय स्वीकार नहीं किया जाता। प्राचार्य शान्तरक्षित के करती है अर्थात् यह प्रात्मा तथा इसके पर्यायों की अनुसार नैरात्म्यवाद भगवान् बुद्ध के विचारों को समान सत्यता प्रदान करती है। द्रव्य 'पाश्मा' के १-न्याय-भाष्य १.१.१०
बिना पर्याय का अस्तित्व नही है, तथा पर्याय के