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भारतीय दर्शनको तीन धाराएँ
भगवानदास विज़, एम० ए० (संस्कृत) जब से पाश्चात्य विद्वानों ने भारत के प्राचीन किया जायेगा। ग्रन्थों का अध्ययन प्रारम्भ किया है तब से भारतीय दर्शन की तोन महत्वपूर्ण धाराएं हैं। भारतीय दर्शन के प्रति कुछ गलत धारणाए प्रथम ब्राह्मण परभरा का मूल प्राधार है उपनिजम गई हैं। उदाहरण के रूप में कुछ पाश्चात्य
षदों का प्रात्मवाद, दूसरी बौद्ध परम्परा का अनात्मविचारकों का मत है कि समस्त भारतीय दार्शनिक
वाद और तीसरी जैन परम्परा का स्याद्वाद । 'सत्य' परम्परागों का उद्गम उपनिषदों से हुआ है। उनका कहना है कि भारत में प्रचलित समस्त धार्मिक पर पहू
पर पहें चने के लिए तीनों परम्परामों के सर्वथा परमराएँ हिन्दु धर्म' को ही विभिन्न शाखाएं हैं।
भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। अनिषद् तथा ब्राह्मण परकुछ एक तो यहां तक पहुँच गये है कि भगवान् मारा का अनुमरण करने वाले अन्य सम्प्रदाय महावीर तथा बुद्ध ने उपनिषद काल के ऋषियों के 'सत्य' को प्रान्तरिक शक्ति अर्थात् प्रात्मा पर ग्राधाकार्य को ही मागे बढ़ाया। इसमें उनको वैयक्तिक रित मानते हैं। ये प्रात्मा को निविकार, निविकल्प कोई देन नहीं है । अतः बौद्ध और जैन दोनों पर. तथा अस्थिर पदाथों से सर्वथा भिन्न मानते हैं । म्पराएं अपना भिन्न अस्तित्व न रखकर उपनिषद् इन परम्परामों का अभिमत है कि 'आत्मा' का बाह्य परमरा के ही अतिक्रमण रूप हैं। किन्तु ये विचार पदार्थों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसे 'प्रात्मवाद' का कहाँ तक तर्क-संगत हैं, यह ब्राह्मण (हिन्दू), बौद्ध, सिद्धान्त कहते हैं। अपने मौलिक सिद्धान्त के रूप में तथा जैन तीनों परमरानों के मूलभूत सिद्धान्तों के अवैत वेदान्त बाह्य दिखाई देने वाली अस्थिर विवेचन से पता चलता है। प्रस्तुत लेख में तीनों वस्तुओं को सत्य नहीं मानता, बल्कि उन्हें माया के परम्परागों के मूलभूत सिद्धान्तों का ही स्पष्टीकरण प्रावरण के कारण मिथ्या दृष्टि का परिणाम
का यह चौहान वंश प्रजमेर के हो चौहान वंश को शाखा या मोर राणा हम्मीर देव सुप्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान के ही वंशज थे।
इस प्रकार इन मूलसंधी भट्टारकों के पट्टकाल निम्न प्रकार स्थिर होते हैंधर्मचन्द्र वि० सं० १३३५.१३६० (१२७८-
१३०३) ई० लगभग रस्नकोत्ति , १३६०-७५ (१३०३.
१३१८ ई.) लगभग प्रभाचन्द्र , १३७५-१४२५ (१३१८-
१३६८) ई० लगभग पद्मनन्दि वि० सं० १४२५-१४७५ (१३६८
१४१८ ई०) लगभग शुभचन्द्र ॥ १४७५-१५०७ (१४१८
१४५० ई०) लगभग जिनचन्द्र , १५०७,१५७१ (१४५०.
१५१४ ई.) लगभग इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र से पूर्व की सब तिथियां पट्टावली में १६ वीं वा १७ वीं शती में केवल अनुमान से दर्ज करवा दी गई हैं, वे सही नहीं हैं।