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उनके परमनन्दि कोई दूसरे ही पद्ममन्दि है- उसके कहने पर लाल वस्त्र धारण करके रक्ताम्बर हो प्रभाचन्द्र के पट्टधर दिल्ली पट्टाधीश पद्मनन्दि नहीं है। गये । बखतराम के बुद्धि विलास के अनुसार यह सं० यदि वे वर्ष (१२७३ और १३८७) शक संवत् के वर्ष १३७५ में दिल्ली पाये थे और तभी बादशाह फीरोज हों तो भी उनका अभिप्राय इन पचनन्दि से नहीं हो सकता शाह के दरबार में इन्होंने राघो और चेतन नामक दोनों लेखों को देखने से इसमें भी सन्देह नहीं लगता कि
विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था और अपने
मन्त्र बल से प्रमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखला दिया उनमें उल्लिखित पदमनन्दि परस्पर में अभिन्न हैं । एक पद्मनंदि (या पंक जनन्दि) भट्टारक ने वि० स० १३६२
था। कुछ अनुश्रुतियों में यह घटनाएं अलाउद्दीन
खिलजी के दरबार में हुई बताई जाती है। श्वेताम्बरामे 'भाराधना संग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की थी२१ ।
चार्य जिन प्रभसूरि (विविध तीर्थकल्प कर्ता) के सम्भव है कि उन लेखों के पद्मनन्दि यह ही हों।
संबंध में भी ऐसी ही दन्त कथाए प्रचलित हैं-किन्तु दिल्ली पट्टाधीश पद्मनन्दि के गुरु एवं पूर्व पट्टधर
उनका सम्बंध मुहम्मद तुगलक के दरबार से रहा बताया भ० प्रभाचन्द्र मोर भी महान एवं प्रभावक दिगम्बरा
जाता है। यह भी कहा जाता है कि प्रभाचन्द्र प्रजमेर चार्य थे। पट्टावली के अनुसार उनका पट्टकाल वि० स०
से समवतया सुलतान के निमन्त्रण पर दिल्ली प्राये थे १३१०-१३८५, लगभग ७५ वर्ष है । किन्तु उनको सर्व
और फिर अन्त तक यही रहे। दिल्ली में इस पट्ट के प्रथम सुनिश्चित एवं ज्ञात तिथि वि० सं० १४०८ है- वरीय उस वर्ष की उनके द्वारा प्रतिष्ठित दाजिन प्रातमाए कवि धनपाल ने अपने पक्ति बाहबलिचरित (वि.सं. फफोसा तीथ पर विद्यमान बताई जाता ह२२। वि० १४५४) में लिखा है कि 'गुज्जर देश के पहलणपुर नगर सं० १४१२ में जिन प्रतिष्ठाचार्य प्रभाचन्द्र ने कुछ में राजावीसलदेव के शासनकाल में पुरवाडवंशी जिनभक्त लंबकञ्चक भावकों के लिए पातुमयी महत् प्रतिमा राज्यधेष्ठि भोवई थे, उन के पुत्र सुहर थे और मुहड के की प्रतिष्ठा की थी २३ । वह यही प्रतीत होते हैं। पुत्र यह धनपाल थे। एक बार महागणि श्री प्रभाचन्द्र वि० सं० १४११ पौर. १४१३ के प्रतिमा लेख इन्ही भ्रमण करते हुए अनेक शिष्यों सहित उस नगर मे के है२४ - वि० सं० १४१६ में इनके शिष्य ब्रह्मनाथूराम पधारे । किशोर धनपाल दर्शनार्थ गये और हाथ जोड़ ने दिल्ली में ही स्वपठनार्थ भाराधना पंजिका की कर गुरु को नमस्कार किया। उसे देखकर गुरु ने कहा प्रतिलिपि की थी२५ । उसकी प्रशस्ति मे उन्होने स्वगुरु कि यह लड़का मेरे प्रमाद से विचक्षण पुरुष बनेगा । प्रभाचन्द्र का जिस प्रकार उल्लेख किया है उससे वह पस्तु धनपाल गुरु की सेवा में रहकर विद्याभ्यास करने उस समय विद्यमान रहे प्रतीत होते हैं। उसके उपरान्त लगा और उन्ही के साथ पट्टण, ख भात, धारानगरी, भी वह विधमान रहे या नहीं और रहे तो कितने समय देवगिरि मादि होता हुमा अन्त में योगिनीपुर (दिल्ली) तक यह नहीं कहा जा सकता।
पहुँचा। वहां भव्यजनों ने एक सुमहोत्सव किया और पं. पन्नालाल दूनी वालों के विद्वज्जनबोधक के प्रभाचन्द्र को रत्नकीति के पट्ट पर अभिषिक्त किया। अनुसार वि. सं. १६०५ में यह प्रमाचन्द्र दिल्ली के इन भ. प्रभाचन्द्र ने महमूद साहि के मन को मनुरजित बादशाह के निमन्त्रण पर उसके दरबार में गये पर किया था भोर अपनी विद्या द्वारा वादियों के मान का
- भंजन किया था। कुछ समय पश्चात् गुरु की माज्ञा २१. हि०० अन्य कर्ता मोर उनके प्रस्थ ..
लेकर धनपाल गोरिपुर की यात्रा के लिए गये। मार्ग २२. जैन यात्रा दर्पण, पृ०१६।
में चंदवार नाम का सुन्दर नगर देखा और वहाँ उनकी २३कामताप्रसाद जैन- जन प्रतिमालेख संग्रह
जिनभक्त वासाघर से भेंट हुई।' उसके उपरान्त , वह २४. जैन सि• भास्कर, भा० २२, कि० २, पृ० ४.५
फिर दिल्ली मा गये प्रतीत होते हैं । और कालान्तर में २५. ना० रा०प्रेमी-90 सा००, पृ०५१ फु० नोट वासाघर के निमन्त्रण पर चन्द्रवार में ही जाकर रहने