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इस प्रकार उपरोक शिलालेखीय साहित्यिक एवं अत सभी प्राधारों से दिल्लीपट्टी भ० जिन की अन्तिम तिथि वि. सं. १५७०-७१ ही निर्णीत होती है, किन्तु जबकि पटावली के अनुसार उनका
मं
१५०७ में हुआ, अन्य ग्राधारों से मुनिरूप में उनका अस्तित्व वि. सं. १५०२ से पाया जाता है। इससे यही निक निकलता है कि उनका मुनिजीवन विस १२०१ १५७१, लगभग ७० वर्ष रहा और पट्टकाल संभवतया वि. सं. १५०७-१५७१ (सन् १४५०-१५१४ ई०) लगभग ६४ वर्ष का था ।
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उनके गुरु एवं पूर्व पर भ० शुभचन्द्र के अपने समकालीन उल्लेख अपेक्षाकृत बहुत कम है वि० मं० १४६४ में काष्ठासंघ माथुर गच्छ के मुनि देवकीर्ति ने रात्र श्रमराजी के लिये, संभवतया श्रागरा प्रदेश में, धातुमयी अत् प्रतिमा की प्रतिष्ठा जिन मूलसंधी भ शुभचन्द्र के उपदेश से की थी ५० वह यही शुभचन्द्र प्रतीत होते है। सं० १४१२ में बीकानेर राज्य के मुडली ग्राम निवासी हम आपके लिये अपने द्वारा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ प्रतिमा पर श्रंकित लेख में भ० सकलकीर्ति ने अपना परिचय मूलमंत्र परवती राजकारण के भट्टारक श्री पद्मनन्द देव के भ्राता ( सधमा १) के रूप में दिया है |११ शुभचन्द्र की भांति सकलकीति भी भ० पद्मनन्दि के ही शिष्य ये और स० १४५१ मे उन्होंने सागवाड़ा (चाम्बर) पट्ट की स्थापना की थी। ईडर पट के भी प्रथम भट्टारक वहीं माने जाते हैं। क्योंकि शुभचन्द्र प्रधान पट्ट पर आमीन थे और इसीलिये संभवतया उनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता भी थे, सकलकार्ति ने उनका उल्लेख अपने लेख में इस प्रकार सम्मान पूर्वक क्रिया । मं० १४६० में भ० शुभचन्द्र की गुरु मांगनी श्रायां रत्न श्री की शिष्या आर्या मलयश्री ने श्रष्टमस्त्री की एक प्रति गजराज नामक व्यक्ति से लिम्याकर भावि भट्टारक बयान (?) को भेंट की थी। इस प्रशस्ति में शुभचन्द्र का विशेषण
१०. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० १8, कि० १० ६१-६३
११. बीकानेर जैन लेख संग्रह, नं० १८७५
अनेकान्त
'राजाधिराज कृतपादपयोजसेवः' दिया है । १२ 'भाविभट्टारक व 'मान' से आशय शुभचन्द्र के पट टधर जिनचन्द्र का ही है अथवा शुभचन्द्र के तत्कालीन उस पट्टशिष्य का है जिसकी मृत्यु संभवतया उनके जीवन काल में ही हो गई थी और फलस्वरूप द्वितीय शिष्य जिनचन्द्र को पट्टाधिकार मिला यह निश्चित रूप से कहना कठिन है यह अवश्य है कि पहली सूरत में जिनचन्द्र के मुनि जीवन के ७० वर्षो में कम से कम १२ वर्ष की और वृद्धि करनी पड़ेगी । यह भी निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि कौन सा 'राजा धिराज' उनका भक्त था । उनकी गद्दी दिल्ली में ही थी और दिल्ली के राज्य सिंहासन पर उस समय मैयद मुबारकशाह आसीन था । संभव है इस सुलतान ने गुरु शुभचन्द्र का कुछ सम्मान किया हो. अथवा उनका भक्त नरेश राजस्थान आदि का कोई बड़ा राजपूत राजा हो । वि० सं० १४८१ ( शाके १३४५) में भ० शुभचन्द्र ने संघपति होलिचन्द्र आदि अपने भक्त वकों से देवगड (जिला झांसी) में बद्ध मान जिनेन्द्र की अपने गुरु भ० पद्मनन्दि की तथा परम्परा गुरु बसन्त कीर्ति की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित कराई थीं। उस समय वहां मालवा के सुल्तान शाह श्रालम्भक ( अलप खां उर्फ हुशंगशाह गोरी) का शासन था १३ । इस लेख में जो गुरु परम्परा (धर्मचन्द्र-कीर्ति प्रभावन्द्र पद्मनन्द-शुभचन्द्र ही है यह पालियों से भी समर्पित है। वि० सं० १४७६ में इन्हीं शुभचन्द्र के काल में अमवाल ने कशानं बुध देशम्य (जिला इटावा) में पोहान नरेश भोजराज
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के मन्त्री अमरसिंह के पुत्र लखामाहु की प्रेरणा से पार्श्वनाथ चरित ( अपभ्रंश ) की रचना की थी । आद्य प्रशस्ति में पद्माचार्य (पद्मनन्दि ) का स्मरण करते हुए, जो संभवतया कवि के गुरु रहे थे, उन्हें उन प्रभाचन्द्र का पट्टधर बताया है जो स्वयं धर्म रूपीचन्द्रमा थे, अथवा, धर्मचन्द्र के शिष्य रामकीर्ति के पटर (आयरिय राजम दुधरिओ) ये । और यह कि पद्मनन्दि के पट्टरूपी अंबर
१२. अनेकान्त, वर्ष १३, कि० २, पृ० ४६ १३. जैन शिला लेख संग्रह, भा० ३, न० ६१७ (शेष पृष्ठ ०४ पर)