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जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि
पं० कैलासचन्द्र जैन शास्त्री, वाराणसी
जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने पुण्य भारत वर्ष में प्रवेश करके एक नये समाज को स्थापना प्रदेश बिहार को न केवल अपने जन्म से पवित्र किया की थी। वैदिक काल मे सिन्धु और मरस्वती का ही था, किन्तु अपनी कठोर माधना के द्वारा उमी प्रदेश की यशोगान होता था। उन्ही के तट पर प्र. की बस्तिका ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान को प्राप्त करके थी। ऋग्वेद की ऋचामो का बहुभाग भी सरस्वतीक राजगृही नगरी के विपुलाचल पर अपनी प्रथम धर्मदेशना तट पर रचा गया था। शेप तीनो वद और ब्राह्मण ग्रन्थ की थी। उस ममय राजा बिम्बसार अंणिक मगध के ऋग्वेद के बाद रचे गए थे । इम काल में वैदिक आर्य स्वामी थे और रानी चेलना के साथ भगवान के राम- दक्षिण पूर्व की ओर बढ़ गए थे और गगा के प्रदेश मे वमरण मे उपदेश श्रवण के लिये बराबर जाया करते थे। बम गए थे। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रन्यो से जिस प्रदेश इमो प्रदेश के विद्वदशिरोमणि ब्राह्मणवशावतंस इन्द्रभूति को सूचना मिलती है वह है कुरुषों और पाञ्चालो का गौतम ने सर्वप्रथम भगवान महावीर के पादमूल मे देवा । सरस्वती और दृपद्धती नदी के बीच का क्षेत्र कुरुप्रवज्या ग्रहण करके उनका शिप्यत्व स्वीकार किया था क्षेत्र था और उससे लगा हुमा, उत्तर-पश्चिम से लेकर तथा भगवान के प्रथम गणधर पद को अलग करके दक्षिण-पूर्व तक फैला हा गंगा और यमुना के बीच का भगवान की देशना को बारह अगो मे प्रथित किया था। प्रदेश पाञ्चाल था। इमी को मनुस्मृति मे (२७) गौतम गणधर के द्वारा अथित वे बारह अग तो कालक्रम ब्रह्मावर्त कहा है । यही प्रदेश एक समय ब्राह्मण मम्यता से लुप्त हो गये किन्तु उनके ही माधार पर सकलित का घर था।
और रचित जन-साहित्य आज भी भारतीय साहित्य सिन्धुदेश मे ब्राहाण सभ्यता का विस्तार किधर को भडार को समृद्ध बनाने में यथायोग्य योगदान कर
हुमा, दमका निर्देग शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। उसमें
लिखा है 'सरस्वती के तट से अग्निहोत्र ने गगा के अतः बिहार भूमि का जिन और जिनशासन स गहरा
उत्तर तट पर गमन किया और फिर मग्यु, गण्डक, तथा सम्बन्ध है और जैनधर्म के अनुयायियो पर उसका महान कोसी नदी को पार करके सदानीरा नदी के पश्चिम तट ऋण है । उस ऋण को चुकाने के लिए ही आज भी पर पहुंचा। उगम अग्निहोत्र के मगध अथवा दक्षिण भारत के कोने-कोने से जैन स्त्री-पुरुप उम पुण्यभूमि की बिहार तथा बगाल मे प्रवेश करने का उल्लेख नहीं है। वन्दना के लिए जाते है और उसकी पवित्र धूलि को ऐतीय प्रारण्यक (२,१-१-५) मे वग, वगध पौर अपने मस्तक पर धारण करके अपने को कृतकृत्य मानते चेरपादो को वैदिक धर्म का विरोधी बताया है। इनमे है। उसका कण कण भगवान महावीर के चरण-चिन्हो मे मे वग तो बगाल ने अधिवामी, बगध' प्रशद प्रतीत मंकित है।
होता है सम्भव नया 'मगध' होना चाहिये । चेरपाद भगवान् महावीर से पूर्व इस देश की धार्मिक स्थिति बिहार और मध्य प्रदेश के चर लोग जान पडते है । डा. के पर्यवेक्षण के लिए प्राचीनतम वैदिक साहित्य ही यत्कि- भण्डारकर ने (भण्डारवर इम्पीटयूट पत्रिका जि०१२, चित् सहायक हो सकता है । माधुनिक अन्वेषको के अनु- पृ० १०५) लिखा है-'ब्राह्मण काल तक अर्थात् ईसा सारमार्य जाति की एक शाखा ने मध्य एशिया से पूर्व ६०० लगभग तक पूर्वीय भारत के चार समूह मगध,