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जैनधर्म में मूर्तिपूजा
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा
१ त्रिविध सौदर्य
व्यवस्था को लेकर समाज में मनमुटाव तथा कलह होते सौन्दर्य के तीन प्रकार हैं-मास्मिक, शारीरिक और इन सब बातों में हिंसा अवश्य ही होती हैं। तथा बाहा। शुद्ध प्रात्मा के ज्ञान दर्शन, चारित्र प्रादि इसी बात को देख कर स्वामी पात्रकेसरी ने कहा है कि गुणों की उत्कृष्टता मात्मिक सौन्दर्य है। निरावण शरीर जीव हिमा के लिए कारण भूत मन्दिर मादि क्रियामों का स्वाभाविक रूप शारीरिक सौन्दर्य है । तथा वस्त्रों का उपदेश केवलज्ञानी भगवान मरहन्त ने नहीं दिया एवं प्राभूषणों से प्राप्त सौन्दर्य बाह्य तथा कृत्रिम सौदर्य है, ये क्रियाएं तो श्रावकों ने स्वयं अपनी भक्ति के का मोह छोड़ना चाहिए तथा फिर शरीर से भी मुक्त कारण शुरू की हैहोकर मात्मिक सौन्दर्य में स्थिर होना चाहिए ।
विमोक्षसुखचंत्यवानपरिपूजनाबात्मिका: २ त्रिविध धर्म
क्रिया बहुविधासुभन्मरणपीडनाहेतवः ।
स्वया ज्वलितकेवलेन न हि वेशिताः किं नु ता: सौन्दर्य के समान धर्म की भी तीन अवस्थाएं हैं
त्वयि प्रसूतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः पावकः॥ मात्मिक, व्यावहारिक तथा प्रौपचारिक । प्रात्मा का
४.प्राचीन प्रागमों में मर्ति पूजा का प्रभाव ". निर्मोह. निष्क्रोध सम भाव में स्थिर होना यह उत्कृष्ट
इस वर्णन को देखते हुए यह स्वभाविक ही प्रतीत मात्मिक धर्म है। जैसा कि कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
म होता है कि जैन साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में =जिन चारित खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिटो।
की रचना वीरनिर्वाण के बाद की छह-सात शताब्दियों मोहखोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।
में हुई है मूर्तिपूजा के उपदेश या उल्लेख नहीं पाये मुनियों के महावत, समितिया प्रादि तथा गृहस्थों
जाते । ग्यारह मंग, बारह उपांग, छह छेदसूत्र तथा चार के अणुव्रत, गुणवत तथा शिक्षावत व्यावहारिक धर्म में
मूल सूत्र इन सभी भागमों में इस बात का वर्णन नही सम्मिलित होते है। इनके अतिरिक्त जो धार्मिक कार्य हैं
है। पागमों का तात्पर्य जिस ग्रन्थ में भाचार्य उमास्वाति उन का-मूर्तिपूजा, मदिर प्रतिष्ठा, तीर्थ यात्रा मादि
ने संकलित किया है उस तस्वार्थ सूत्र में भी मूर्तिपूजा का का-प्रौपचारिक धर्म में समावेश होता है। प्रौपचारिक EिNT धर्म तभी उपयुक्त होगा जब वह हमें व्यावहारिक (व्रत- ५ व्रतों में मूर्तिपूजा का समावेश-- पालन रूप) धर्म की मोर पोर मात्मिक (निर्मोह सम- प्राचीन परम्परा में मूर्तिपूजा का उपदेश न होने से भाव रूप) धर्म की भोर प्रेरित करेगा।
मध्ययुग में जिन प्राचार्यों ने उसका वर्णन करना चाहा ३ मूर्तिपूजा क्या तीर्थ कर प्रणीत है? उनके सामने यह कठिनाई उपस्थित हुई कि इसका
धर्म के इन तीन रूपों का परस्पर सम्बन्ध मौर समावेश गृहस्थों के किस व्रत में या किस प्रतिमा में किया तुलनात्मक महत्व भूलने के कारण हम अक्सर मूर्ति पूजा जाय । रत्नकरण्ड में स्वामी समन्तभद्र ने वैयावत्य शिक्षा पर बहुत अधिक जोर देते हैं । किन्तु मूर्तिपूजा के साथ व्रत का वर्णन करने के बाद देव पूजा का वर्णन कर दिया कई सामाजिक प्रवृत्तियां जुड़ जाती हैं। मूति-मन्दिरों है । इस प्रकार वे मुनियों की सेवा के साथ देव पूजा को की व्यवस्था के लिए नौकर रखे जाते हैं, उनके वेतन के -
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..इसी बात को लेकर सन् १४७० में बहमदाबाद लिए बामन्दिरों के जीर्णोद्धार मादि के लिए स्थायी में लोकाशाहने मतिपूजा विरोधी स्थानकवासी सम्पत्ति (घर, दुकान मादि) प्राप्त की जाती है, उस की संप्रदाय का प्रारम्भ किया था।