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मैन वन और उसकी पृष्ठभूमि जिस तरह जैन-दर्शन अनेकान्तमय है उसी तरह विशुद्धि के लिए मानसिक विशुद्धि प्रावश्यक है। मन के जैनधर्म अहिंसामय है। अनेकान्त पौर अहिंसा ये दो प्रविशुद्ध रहते हुए महिंसा का पूर्ण पालन प्रशक्य है । ऐसे तत्व हैं जो समस्त जैनाचार और विचार पर छाये मन के विकार ही मूलत: हिंसा के जनक हैं, इतना ही हए हैं । जैसे अनेकान्तविहीन विचार मिथ्या है वैसे ही नहीं किन्तु वे स्वय हिंसा रूप है। पहिसाविहीन प्राचार भी मिथ्या है । समस्त जैनाचार
क्योंकि जब हम दूसरों को मारने या सताने का का मूल एक मात्र महिसा है। जिस प्राचार में जितना
विचार करते है तो सर्वप्रथम उस दुविचार से अपनी ही हिंसा का मंश है उतना ही उसमें धर्म का मश है
प्रात्मा का ही घात करते है। प्रत्येक मानसिक विकार
उसके कर्ता के लिये ही सर्वप्रथम मनिष्टकारक होता पौर जितना हिसा का मंच है उतना ही प्रधर्म का प्रश है । सारांश यह है कि हिंसा धर्म है और अहिंसा धर्म
है। अत: मात्मा को विकार शून्य कर देना ही पूर्ण
पहिसा है। मौरमात्मा की उस निविकार अवस्था को है किन्तु अपने से किसी के प्राणों का पात हो जाने या किसी को कष्ट पहुँच जाने मात्र से जैन-धर्म हिंसा नहीं।
ही मोक्ष कहते हैं। प्रतः पूर्ण माहिंसा ही मोक्ष का
कारण है। मानता । जहाँ कर्ता का मन दूषित है-प्रमादी और
किन्तु हम लोग तो गृहस्थ हैं प्रतः यद्यपि पूर्ण माहिंसा प्रसावधान है वहाँ बाहर में हिंसा नहीं होने पर भी
का पालन करने में असमर्थ हैं तथापि प्रांशिक अहिंसा हिंसा अवश्य है और जहाँ कर्ता का मन विशुद्ध है उसकी
का पालन करना हमारा कर्तव्य है। समाज की सुखप्रवृत्ति पूर्ण सावधानता को लिये हुए है वहाँ बाहर में
शान्ति उसके सदस्यों की प्रहिंसा-मूलक वृत्ति पर ही हिंसा हो जाने पर भी हिंसा नहीं है । कहा भी है
निर्भर है । जिस समाज के सदस्यो में जितना ही पारमरर व जीवदु जीवो प्रयदाचारस्स णिज्छिवा हिसा'
स्परिक सौहार्द और सद्भाव होता है वह समाज उतना पयवस्स णस्थिबंधो हिसामेतण समिदस्स"
ही सुखी होता है । यही बात राष्ट्रो के विषय मे भी जीव मरे या जिये, जो प्रयत्नाचारी है =प्रमादमूलक
जानना चाहिये । विश्व के राष्ट्रों में जितना ही सद्भाव प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा का पाप अवश्य होता है।
होगा उतनी ही विश्व में शान्ति रहेगी। किन्तु जैसे किन्तु जो अप्रमादी है, सावधानता पूर्वक प्राचरण करता
समाज में सभी सज्जन नहीं होते वसे ही सभी राष्ट्र है उसे हिसा हो जाने मात्र से पाप का बष नहीं होता।
भी सज्जन नहीं होते और इसलिए जैसे दुर्जनों के बीच में इसी से कहा है-कि एक बिना मारे भी पापी
पड़कर सज्जन को भी कष्ट भोगना पड़ता है वैसे ही होता है और दूसरा मार कर भी पाप का भागी नहीं
लड़ाकू राष्ट्रों के बीच मे पड़कर शान्ति प्रेमी राष्ट्र को होता।
भी लड़ाकू बनमा पड़ता है अन्यथा उसकी स्वतन्त्रता इस तरह जैन धर्म में हिसा की व्याख्या मध्यात्म.
म. खतरे में पड़ सकती है। मलक हैं। यदि ऐसा न मानकर बाह्य हिंसा को ही हिंसा हमारा भारत देश सदा से शान्ति-प्रेमी रहा है माना जाता तो ससार में कोई अहिंसक हो नहीं सकता उसने कभी किसी बाहरी देश पर माक्रमण नहीं किया, था।कहा भी है
प्राज भी वह अपनी उस नीति पर दृढ़ है किन्तु फिर भी विध्वग्जीवचिते लोकेगक परन कोऽप्यमोक्ष्यत्' एक पड़ोसी राष्ट्र ने मित्रता का स्वांग रचकर उस पर भावकसापनी बन्धमोमो चेन्नाभविष्यताम् । माक्रमण किया और माज भी वह हमारी भूमि दबाये
यदि बन्ध और मोक्ष का एकमात्र साधन भाव बैठा है। ऐसे राष्ट्र पर माक्रमण करके अपनी भूमि (जीव के परिणाम) न होता तोच पोर जीवों से भरे हस्तगत करना हिंसा नही है, अहिंसा है । लुटेरों की हुए इस संसार में विचरण करने वाला कोई भी मनुष्य अहिंसा भी हिसा है और मातृभूमि की रक्षा के लिए क्या कभी मोक्ष प्राप्त कर सकता था?
जूझने वाले वीरों की हिंसा भी महिंसा है। हिंसा और प्रतः अपनी वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति की पहिसा का यह पाठ हमें सदा याद रखना चाहिये ।