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अनेका
लगाते हैं, मभिषेक में जल के साथ दूध, दही, घी. फलों खोपरे के टुकड़े ही काम में लाते है । किन्तु इस रीति के रस तथा कल्कचूर्ण (इलायची, लोग प्रादि का चूर्ण) मे पूजा के जो मन्त्र मभी रूढ़ हैं वे बीसपंथी पद्धति के मिले हुए जल का प्रयोग करते हैं एवं प्रष्ट द्रव्य पूजा मे ही है । इससे कुछ प्रसत्य भाषण का दोष उत्पन्न होता तरह तरह के पक्वान्नों एवं फलों का प्रयोग करते हैं। है। चन्दन, पुष्प तथा प्रक्षत तीनो के मन्त्र मलगयह पद्धति भी वीतराग भाव की पोषक नही कही जा पढ़े जाते है, किन्तु तीनो बार के बल चावल पर्पण किये सकती। इससे एक सामाजिक प्रश्न भी उपस्थित होता जाते । हैं इसी तरह नैवेद्य पौर दीप के मन्त्र अलग २ है। इस रीति में भगवान को जो फल एवं पक्वान्न होने पग भी पदार्थ एक ही (खोपरे का टुकड़ा) पित प्रपित किये जाते हैं वे पूजा के बाद निर्माल्य कहलाते हैं, किया जाता है। इस द्रव्य को बहुधा मन्दिर के नौकर (माली) अपने हमारी समझ मे पूजा का सर्वोत्तम तरीका यह होगा प्रयोग मे लाते हैं, किन्तु निर्माल्य द्रव्य का इस तरह कि भगवान को निगवण मूनि सन्मुख शान्त भाव से उपयोग करना पाप माना जाता है, प्रत. मन्दिर के खडे होकर उनके मुणों का पवित्र हृदय से स्मरण किया नौकरों को इस पापपूर्ण कार्य के लिए मौका देना कहाँ जाय, उस प्रकार के स्तोत्रों का पठन किया जाय तथा तक उचित है यह प्रश्न सहज ही उठता है । इस पद्धति 'मेरी भावना' जैमी उच्च भावनामों का चिन्तन किया मे सचित्त फल, फूक, पक्वान्न प्रादि वा प्रयोग बन्द करके जाय । जैन मूर्तिपूजा का जो वास्तविक उचित उद्देश दिगम्बर समाज के तेरापथी भाइयो ने काफी सादी पूजा है उससे यही पद्धति सुमंगत हो सकती है ऐसी पूजा यदि पद्धति अपनाई। वे अभिषेक में सिर्फ जल का प्रयोग सामूहिक रूप में की जाय तो उसका प्रभाव मधिक होता करते हैं तथा प्रष्टद्रव्यपूजा में भी मूर्ति को चन्दन या है तथा सामाजिक एकता के लिए भी वह बहुत उपयोगी फूल अर्पण नहीं करते, केवल चावल, सूखे फल तथा सूखे सिद्ध होती है।
संवेग
मुनि श्री मथमल जी
वेग शब्द विज़-धतु से बना है। विज का अर्थ है मल-मूत्र के वेग को मत रोको, उसे रोकने से प्रनेक रोग दौड़ना, कम्पन करना। वेग दो प्रकार का होता है- उत्पन्न हो जाते हैं। शारीरिक और मानसिक । भूख, प्यास, रोना, हंसना, मुर्त निरोहे चक्ख, बच्चनिरोहे य जीवियं चयति । मल, मूत्र, वीर्य प्रादि शारीरिक वेग हैं । क्रोध, अभिमान,
उड्डनिरोहे कोड, सुस्कनिरोहे भवह अपुमं ।। कपट लोभ, काम वासना मादि मानसिक वेग है । शारी.
मूत्र का वेग रोकने से चक्ष की ज्योति नष्ट होती रिक बेग को रोकने से हानि होती है और मानसिक वेग. है। मल का वेग रोकने से जीवनी शक्ति का नाश होता को न रोकने से हानि होती है। मायुर्वेद की दृष्टि से भी है उर्ववायु रोकने से कुष्ठरोग उत्पन्न होता है भौर वीर्य शारीरिक वेग को रोकना लाभप्रद नहीं है । दणकालिक का वेग रोकने से पुरुषद की हानि होती है। सूत्र में कहा है- 'बच्चयुत्तम धारए'
बेग का अर्थ है-स्फूर्ति या तीव्र गति से उपसर्ग