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अनेकान्त है-'यहां यह निर्देश करना अनुचित न होगा कि उप- लिया जो पाज तक जीवित है। दूसरी पोर ब्राह्मण निषदों में बारंबार पाने वाले सम्बादों से, जिनमें कहा परम्परा के प्राचार-विचार का प्रभाव श्रमण परम्परा गया है कि उच्च ज्ञान की प्राप्ति के लिए ब्राह्मण क्षत्रियों पर पड़ा । कपिल मूल में निवृत्ति-मार्गी बमण परम्परा के पास जाते थे, तथा ब्राह्मण ग्रन्थों के साधारण सिद्धान्तों के अनुयायी थे। किन्तु उनका केवल दर्शन बचा है के साथ उपनिषदों की शिक्षा का मेल न होने से और सम्प्रदाय नही । ज्ञात होता है कि बाद के शैव माहेश्वर पाली ग्रन्थों में वणित जन-साधारण में दार्शनिक सिद्धान्तों सम्प्रदाय में उसका अन्तर्भाव हो गया मौर उसके दार्शके अस्तित्व की सूचना से यह अनुमान करना शक्य है निक सिद्धान्तों को, जो मूल में मनीश्वरवादी थे, सेश्वरकि साधारणतया क्षत्रियों मे गम्भीर दार्शनिक अन्वेषण वादी बनाकर एक मोर पाशुपत शैवों ने और दूसरी मोर की प्रवृत्ति थी, जिसने उपनिषदों के सिद्धान्तों के निर्माण भागवतों ने अपना लिया। में प्रमुख प्रभाव डाला। अतः यह सभव है कि यद्यपि कपिल का सांख्य दर्शन प्राचीनतम दर्शन माना जाता उपनिषद ब्राह्मणों के साथ सम्बद्ध है किन्तु उनकी उपज है। कुछ उपनिषदों में सांस्य के कतिपय मौलिक विचार प्रकले ब्राह्मण सिद्धान्तों की उन्नति का परिणाम नहीं है, मिलते हैं। प्रतः डा. याकोबी का विचार था कि प्राची. प्रबाह्मण विचारों ने अवश्य ही या तो उपनिषद सिद्धान्तों नतम उपनिषदों के काल मे सौख्य-दर्शन का उदय हमा। का प्रारम्भ किया है अथवा उनकी उपज भार निर्माण में चूकि योग-दर्शन का निकट सम्बन्ध भी साख्य केसी फलित सहायता प्रदान की है, यद्यपि ब्राह्मणों के हाथों से इसलिए योगदर्शन का उदय भी उसी के साथ माना जाता ही वे शिखर पर पहुँचे है। अन्य भी अन्वेषक विद्वानो ने है। इन दर्शनों के उदय में प्रधान कारण प्रात्मामों इसी तरह के विचार प्रकट किये है। वस्तुतः इस देश अमरत्व मे विश्वास था, जो उस समय सर्वत्र फैला इमा मे प्रवत्ति और निवत्ति को दो परम्पराए' ऋग्वेद के था। यह एक ऐसा सिद्धान्त था जिसे मृत्यु के पश्चात समय में भी प्रचलित थीं। प्रवृत्ति परम्परा को देव विनाश से भीत जनता के बहुभाग का समर्थन मिलना परम्परा कहते थे, यज्ञविधि प्रादि उसी के प्रग है। यही निश्चित था। परम्परा ब्राह्मण परम्परा के नाम से विख्यात हुई। प्रारमानों के अमरत्व के सिद्धान्त ने ही तर्कभूमि में निवृत्ति परम्परा को मुनि परम्परा कहा जाता था। प्राकर जड़तत्त्व की भिन्नता को सिद्ध किया, जिसका यही परम्परा श्रमण परम्परा की पूर्वज थी। निवृत्ति- प्राचीन उपनिषदों में प्रभाव है। ये दोनों सिद्धान्त मार्गीय श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय महावीर और बुद्ध से प्रारम्भ से ही जैन और सांख्ययोग जैसे प्राचीनतम दर्शनों पूर्व भी विद्यमान थे। अशोक ने अपने शिलालेखो में उसी के मुख्य भाग है । वैशेषिक और न्यायदर्शन का उदय तो माधार पर श्रमण ब्राह्मणों का उल्लेख किया है उसका बहुत बाद में हुमा हैं मोर इन दोनों ने भी उक्त दोनों मभिप्राय ब्राह्मण और श्रमणों की दो पृथक परम्परामों सिद्धान्तों को अपने में स्थान दिया है। बादरायण ने के अस्तित्व से था। पतञ्जलि ने पाणिनि के 'येषाञ्च ब्रह्मसूत्र में वेदान्त दर्शन को निबद्ध किया है । यद्यपि यह विरोषः शाश्वतिक:' सूत्र पर 'श्रमण ब्राह्मणम्' उदाहरण कहा जाता है कि उन्होंने उपनिषदों के सिद्धान्तों को ही देते हुए सूचित किया है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का व्यवस्थित रूप दिया है किन्तु ब्रह्मसूत्र में भी जीव को पृथक-पृथक पस्तित्व चला पाता है। इन दोनों परम्प- अनादि और अविनाशी माना है। शंकराचार्य ने अपने रामों में बहुत कुछ मादान-प्रदान भी हुआ है। श्रमण भाष्य में भले ही इसके विरुद्ध प्रतिपादन किया है । इसके परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में सन्यास प्राधम को सम्बन्ध में कलकत्ता के श्रीमभयकुमार गुह का 'ब्रह्मसूत्र में स्थान मिला, मोर प्राचार्य शंकर ने तो दशनामी सन्या- जीवात्मा' शीर्षक निबन्ध पठनीय है। सियों के रूप में श्रमणों जैसा ही नया संगठन खड़ा कर कठ और श्वेताश्वतर उपनिषदों में ब्रह्म से प्रारमायाँ