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प्रोम पहम्
अनकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धनात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १७
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६.
वीर निर्वाण सं० २४६०, वि० स० २०२१
किग्गा, ३
सन् १९६४
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अर्हत् परमेष्ठी स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात् । अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैद्वेषोऽपि संभाव्यते ॥ तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽहंन्सदा पातु वः ॥
-मुनि पद्मनन्दि
अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह रूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल मादि आयुषों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की संभावना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिये राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके समताभाव प्रावित हुआ है, और इस समताभाव के प्रकट हो जाने से उनके अात्म-विबोध हुमा है, उससे कर्मों का क्षय हुआ है। मौर कर्मों के भय से महंत परमेष्ठी अनन्त सुख मादि गुणों के माश्रय को प्राप्त हुए हैं। वे महंत परमेष्ठी सर्वदा प्राप लोगों की रक्षा करें।