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अनेकान्त
स्वयं निर्बल तथा कलुषित करता है। यह निबलता अपने इसी का नाम प्राभ्यन्तर और बाह्य में मित्रता है जो जैनभापमें दण्ड है । यदि तुम प्रतिशोध के रूप में दण्ड देते हो माधना की प्राधार्गशला है। तो तुम भी अपने प्रापको मलिन करते हो। यह व्यवस्था (५) अपरिग्रह-माम्यवाद का जन्म मामाजिक किमी प्रतीन्द्रिय शक्ति के हाथ में भी नहीं है। दण्ड के विषमता को दर करने के लिये हश्रा । माक्म तथा अन्य बदले में दण्ड या पाप के बदले में पाप न्याय नहीं है। विचारको ने देखा कि एक वर्ग पम्पन्न है और दूसरा इसके विपरीत पापी के प्रति हमारी भावना मित्रतापूर्ण दरिद्र । सम्पन्नवर्ग दरिद्रवर्ग का शोषण कर रहा है और होनी चाहिये । हम यह कल्पना करे कि उसने हिंसा या उसे पनपने नहीं देता। इस वर्गभेद का कारण वैयक्तिक पाप के द्वारा अपने प्रापको मलिन किया है उसे समझ सम्पत्ति है। फलस्वरूप उसने राजकीय विधान द्वारा प्राये और वह उस मलीनता को धोने का प्रयत्न करे । सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को ममाप्त कर दिया। मंत्री की यह भावना दोनों के हदय को पवित्र करती है। इस व्यवस्था में वर्गभेद को मिटा दिया और सभी को जैनधर्म के अनुसार न्याय का आधार दसरे की शुद्धि है, भोजन, निवास श्रादि जीवन मुविधायें प्राप्त होने लगीं। र नहीं । यहां प्रात्म शुन्द्वि के मार्ग को निर्जरा कहा गया किन्तु ऊपर से लादी जाने के कारण इस व्यवस्था ने है और प्रायश्चित्त उसका मुख्य तत्व है । इसके लिए स्वतन्त्र प्रतिभा का भा दमन किया। मानव विचार की मालोचना, प्रतिक्रमण, निदा, गर्दा, काय व्युत्मर्ग उच्च भूमिकाओं को छोड़कर निर्वाह की माधारण भूमिका प्रादि अनेक प्रक्रियाये बताई गई हैं । जैन-धर्म सिद्वान्त पर श्रा गया। जैन-धर्म विषमता की इस समस्या को न्याय के इसी रूप को प्रगट करता है । वहाँ यह बताया सुलझाने के लिए 'अपरिग्रह' का सन्देश देना है। वह यह गया कि किस प्रकार की बुराई करने पर प्रात्मा में किम मानता है कि परिग्रह वैषम्य को जन्म देता है उसे दूर प्रकार का मालिन्य पाता है।
करने के लिये सर्वोच्च भूमिका अपरिग्रही या माधु की है (४) बाहय प्रौर प्राम्यन्तर में मैत्री-वर्तमान युग जो अपने पास कोई पम्पत्ति नहीं रग्वता । उसमें नीची की सबसे बड़ी समस्या विशवलिन व्यक्तित्व है । हम भूमिका श्रावक का है जो परिग्रह की स्वेच्छापूर्वक मर्यादा मांचतं कुछ है, कहत कुछ है और करत कुछ । मन में करता चला जाता है और विषमता में समता की ओर बढ़ता भी एक प्रकार का द्वन्द्व चलता रहता है । एक विचार है। श्रावक व्रतों में पांचवा वत 'परिग्रह परिमाण' है कछ करने को कहता है और दसरा कुछ । इस प्रकार जब और छटा या परिमाण । पहले में धन सम्पत्ति धादि व्याक्तित्व में काई शृंखला नहीं रहती तो वह शक्तिहीन संग्राह्य वस्तु को मर्यादा की जाती है और दूसरे में होता चला जाता है। प्रशांति बढ़ जाता है और हम
व्ययमाय नया रोग । नत्र की है। प्रांतरिक प्राघात-प्रत्याधाता के कारण व्याकुल रहने लगते
इस प्रकार हम देखते हैं कि जन-धर्म प्रत्येक क्षेत्र में है। शपियर के प्रमिट नाटक हेमलेट' और भगवद्- 'विश्वमैत्री' के लक्ष्य को लेकर चलता है। धर्म, दर्शन गीता में इसी अन्त' का चित्रण मिलता है। राजकुमार माधना. दैनिक कृत्य आदि सभी में उसकी झलक मिलती देमलेट तथा अर्जुन वार होने पर भी अंनद के कारण है। विश्वमैत्री का यह प्रादर्श ज्यों-ज्यों जीवन में उतरता कायर हो गये । जन-धर्म का कथन है कि मन, वाणी और है माधक ऊँचा उठता मला जाता है। अग्निम भूमिका कर्म में एक सूत्रता होनी चाहिये इसी को चारित्र कहा गया वीतराग की है जहां भेदबुद्वि मशा समाप्त हो जाती है। इसरी भोर मन के सामने एक उच्च लक्ष्य रहना है। न किसी के प्रति राग रहता है और न वैष । न कोई चाहिए। उसके प्रति निष्ठा होनी चाहिए । इसी का अपना होता है और न पराया । जब तक शरीर रहता है नाम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का सभी के कल्याण के लिये प्रयत्न चलता रहता है। इमीको ज्यों-ज्या विकास होगा जीवन में एक मृत्रता प्राती जायगी अरिहंत अवस्था कहने हैं जो जीवन की सर्वोच्च अवस्था है।
(जैन प्रकाश से)